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Showing posts from July, 2023

पर्यावरण का सरंक्षक - गोबर गैस

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            भारत एक कृषि प्रधान देश हैं। कृषि और पशुपालन एक दूसरे के पूरक हैं। पशुओं के गोबर से गोबर गैस प्लांट का संचालन करना दोहरा फायदा देता हैं। एक तो यह कि गोबर गैस प्लांट से निकली हुई गोबर की सेलेरी सीधी खेत में डाली जा सकती हैं , जो अत्यंत लाभकारी होती हैं। दूसरा गोबर गैस प्लांट से बनने वाली गैस ऊर्जा का अच्छा स्रोत हैं। कई सालों पहले सरकारी योजना के अंतर्गत घर-घर गोबर गैस प्लांट लगवाये गये थे। जिससे निकलने वाली गैस से चूल्हा जलता था तथा घरों में रोशनी भी होती थी। धीरे-धीरे लोग उदासीन होते गये। सारे गोबर गैस प्लांट कबाड़ हो गये।           नये-नये रिसर्च हो रहे हैं। राजस्थान गौ सेवा संघ जयपुर में इस गैस को सिलेण्डर में भरकर काम में लिया हैं। इस गैस को प्रोसेस करके काम में लिया जाये तो सीएनजी गैस के वाहन चलाये जा सकते हैं। गोबर गैस संयत्र से निकलने वाली बायोगैस में 64 प्रतिशत मिथेन तथा 36 प्रतिशत कार्बनडाईऑक्साइड होती हैं। इनको प्रोसेस करके पैट्रोल के रूप में ईधन की जगह काम में लिया जा सकता हैं।           एक रिपोर्ट के अनुसार कन्हैया गौशाला जोधपुर में 1500 गायों के गोबर से गो

रेगिस्तान में अंजीर की खेती

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            तुर्की व अफगानिस्तान से आयात किया जाने वाला महंगा मेवा अंजीर आजकल राजस्थान के रेगिस्तान में सफलतापूर्वक उगाया जा रहा हैं। टिश्यू कल्चर से तैयार किये गये पौधे डायना प्रजाति के किसानों के खेत में लगाये जा रहे हैं। इन पौधां को लगाने के एक वर्ष बाद ही फल देना शुरू कर देते हैं। बाड़मेर जिला मुख्यालय से 60 कि.मी. दूर चौहटन तहसील में डायना वैरायटी के 600 पौधे लगाये गये हैं , जिनका उत्पादन आना शुरू हो गया हैं। इसी प्रकार अमरापुरा में भी इसकी खेती शुरू की गयी हैं। टिश्यू कल्चर से तैयार पौधां की यह विशेषता होती हैं कि ये पौधे 3 डिग्री से लेकर 55 डिग्री तक  का तापमान सहन कर सकते हैं। इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती हैं। अतः पेस्टिसाइड की आवश्यकता नहीं होती हैं। यहाँ की रेतीली मिट्टी इसके लिये उपयुक्त हैं। वातावरण में कम आर्द्रता इस फसल के माफिक होती हैं। जालोर , राणीवाड़ा , सायला , भीनमाल , पौसाला व आस-पास के क्षेत्र इसकी खेती के लिये उपयुक्त हैं।      पहले वर्ष में एक पेड़ से 7-8 किलोग्राम गीला फल पैदावार देता हैं। ताजा फल 80 से 100 रूपये प्रति किलो बिकता हैं। इस फल को ताज

भारतीय सनातन विद्यायें

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             भारतीय आयुर्वेद एवं योग का डंका पूरे विश्व में बज चुका हैं। अब अमेरिका में भारतीय ज्योतिष शास्त्र के भी लोग दीवाने हो रहे हैं। अमेरिका में नवयुवक अपनी शादी करने के लिए तथा शादी को प्रपोज करने के लिए ज्योतिषियों से सलाह-मशवरा करते हैं। उनका मानना हैं कि ऐसा करने से वैवाहिक जीवन में आने वाली समस्याएँ नहीं आयेगी। एक रिसर्च के अनुसार लगभग 30 प्रतिशत युवक और युवतियाँ अपना घर बसाने के पहले ज्योतिषियों की राय लेते हैं। पिछले काफी समय से अमेरिका में पति पत्नि में मतभेद होने के कारण , इतना ही नहीं छोटी-छोटी बात को लेकर सम्बन्ध विच्छेद की कार्यवाही शुरू कर देते थे। इस समस्या के कारण वहाँ का पारिवारिक जीवन मृत प्रायः हो गया था। सामाजिक स्थिति बिगड़ चुकी थी। लेकिन जबसे इस विषय में ज्योतिष का सहारा लिया गया और उनकी सलाह के अनुसार कार्यक्रम तय किये गये तो जीवन में स्थायित्व आ गया। ऐसा वहाँ के नागरिक विश्वास करते हैं।           भारत की विद्यायें अति प्राचीन एवं वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होती हैं। यही कारण है कि भारत का आयुर्वेद पूरे विश्व में खूब प्रचलित हो रहा हैं। हालांकि आयुर्वेद क

गीता माधुर्य

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            16 जुलाई 1945 को जापान में हिरोसीमा व नागासाकी पर परमाणु बम गिराये गये। जिससे दो लाख से ज्यादा लोग मारे गये। परमाणु बम के आविष्कार जनक और अमेरिकी भौतिक वैज्ञानिक जै. राबर्ट ओपेनहाइमर ने अपने आविष्कार से दुनिया को विध्वंस हेते देखा। हालांकि उनको आंशका थी कि इससे कितना बड़ा सृष्टि का विनाश होगा जो अकल्पनीय होगा। परमाणु बम के विस्फोट के बाद उनके मन में पीड़ा और दर्द रहने लगा। इस पीड़ा से ओपेनहाइमर  इतने दुखी हो गये कि उनका सारा चैन खत्म हो गया। वे हमेशा अनमने से रहने लगे।           इस विकट मानसिक स्थिति से उभरने का उनके पास कोई साधन नहीं था। कुछ समय बाद एक भारतीय योगी से सम्पर्क हुआ। उन्होने अपनी मनःस्थिति को योगी के सामने प्रकट की। योगी को समझने में देर नहीं लगी। उन्होनें अपनी झोली में से एक पुस्तक निकाल कर ओपेनहाइमर के हाथ में थमाई और कहा कि यह दवाई तुम्हारा इलाज हैं। पुस्तक और कोई नहीं  श्रीमद्भगवत्गीता  थी। लेकिन वह मूल भाषा संस्कृत में लिखी हुई थी। योगी जी ने गीता के कुछ श्लोकों का अंग्रेजी में अनुवाद करके उन्हे बताया। ओपेनहाइमर खुशी से उछल पडे़। उन्हे अपना उतर मिल चुका

रेगिस्तान मे पैदा हो रही अफ़गानिस्तान की कंधारी अनार

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            जब मै स्कूल मे पढ़ता था उस समय कंधारी अनार बहुत कम जगह पर मिलता था। विशेषकर महात्मा गांधी अस्पताल जोधपुर के सामने नीम के पेड़ के नीचे एक दो ठेले अनार बेचते थे। यह अनार कंधार से आयात की जाती थी। वही अनार आज कल राजस्थान के रेगिस्तान मे भरपूर पैदा हो रही है। बाड़मेर , बालोतरा , सिवाना , फलोदी , बीकानेर , सिंधरी , बुड़ीवाड़ा , जागसा , धनवा आदि गांवों मे करीब 80,000 किसान इसकी खेती सफलता पूर्वक कर रहे है। जैसेलमेर जिले के  सोडाकोर , पोखरण , नाचना , मदासर , राजमथाई और बाँधेवा गांवों मे इसकी खेती हो रही है। बीकानेर जिले के देशनोक , पलाना , मानयाना , देशलसर और नापासर आदि के किसान बड़े पेमाने पर अनार की खेती कर रहे है। बाड़मेर जिले के मोकलसर , उंडू, भियाड , मोखाब , काथाड़ी , कानासर व  जालोर जिले के जीवाना व दहीबा गांवों मे इसके बगीचे है।             एक हेक्टेर मे 14 फुट क्ष 1 0 फुट की दूरी पर लगाने से 800 पौधे लगाए जाते है। तीसरे वर्ष एक हेक्टेर मे 150 से 200 कुंतल तक पैदावार होती है। नेशनल होरट्रीकलचर मिशन (भारत सरकार) अनार की खेती पर लागत का 40 प्रतिशत अनुदान देता है जो अधिकतम 2

पौराणिक सुपर फूड-राजगीरा

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        विश्व के प्राचीनतम भोजन में अमरंथ या राजगीरा सबसे पौष्टिक दाना हैं। अमरंथ में विभिन्न प्रकार के पौष्टिक तत्व होने के कारण इसे विश्व के सुपर फूड में कंसीडर किया जाता हैं। अमरंथ में प्रोटीन , कॉर्बाहाइडेट , आयरन , कैल्शियम के साथ-साथ अन्य विटामिन और खनिज तत्व पाये जाते हैं। इतने बहूमूल्य रामदाना को व्रत में खाया जाता हैं। पौराणिक काल में अमरंथ को राम का दाना अर्थात भगवान का भोजन कह कर पुकारा गया हैं। अतः इसे व्रत और त्यौहारो में विशेष रूप से खाया जाता हैं। राजगीरा का अर्थ होता हैं , रॉयल ग्रीन जिसे भगवान को अर्पण करके व्रत में खाया जाता हैं। अमरंथ के पत्तों का भी साग बनाकर खाया जाता हैं।      राजगीरा में विटामिन ए एवं केरोटिरोरोनोडिस प्रचूर मात्रा में पाया जाता हैं। जो आँखों की रोशनी को ठीक रखने के साथ-साथ एन्टीऑक्सीडेन्ट का काम करते हैं। 100 ग्राम राजगीरा के बीजो में 19 ग्राम प्रोटीन पाया जाता हैं। जो किसी भी अनाज से सबसे ज्यादा हैं। वजन कम करने के लिये राजगीरे के आटे की रोटी लोग खाते हैं। राजगीरे की रोटी , लड्डू , पुलाव आदि कई पकवान बनाकर खाये जाते हैं। राजगीरे का सेवन करने

अद्भुत गुणों से भरपूर-लाल भिंडीं

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       कुमकुम भिंडीं लाल रंग की होती हैं। आचार्य नरेन्द्र देव कृषि विश्व विद्यालय , कुमारगंज , फैजाबाद (उत्तरप्रदेश) के उद्यान विभाग में लाल भिंडीं की खेती पर विशेष शोध कार्य किया गया हैं। उत्तर प्रदेश में कई प्रगतिशील किसान इसकी खेती कर रहे हैं। साधारण भिंडीं की तरह ही इसका पौधा दिखता हैं और कृषि तकनीक भी वैसी ही हैं।      कुमकुम भिंडीं की खेती बहुत आसान हैं। इसको जुन-जुलाई या जनवरी-फरवरी में बोया जाता हैं। अच्छी गुणवत्ता का बीज भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के बनारस सेंटर इण्डियन इंस्टीटयूट ऑफ वेजीटेबल रिसर्च सेन्टर से प्राप्त कर सकते हैं। इस सेन्टर के द्वारा ‘‘काशी लालिमा‘‘ नाम की किस्म विकसित की गयी हैं। हरी भिंडीं से ज्यादा लाल भिंडीं अधिक पौष्टिक और एन्टी ऑक्सीडेंट होती हैं। इसके सेवन से डायबिटीज और हदय की बिमारी वाले लोगों को बहुत फायदा मिलता हैं। इस फसल में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होने के कारण रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करना पड़ता हैं। ज्ञातव्य हो कि पेड़-पौधों में क्लोराफिल की वजह से जो हरा रंग होता हैं वह कीड़ों को अपनी और आकर्षित करता हैं। क्योंकि लाल भिंडीं का पौधा और

रेगिस्तान में पनपती बहुमूल्य खूंभी

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  जून , जुलाई , अगस्त बारिश के महीनों में जब बादलों की गड़गड़ाहट होती हैं तब रेगिस्तान के रेतीले भू-भाग में खूंभियां उगना शुरू हो जाती हैं। सफेद रंग की खुंभी ओरण , गोचर , चारागाह , पड़त भूमि , बाड़ के किनारे , नदी नालों के किनारे आदि जगहों पर उगती हैं। अनादिकाल से ग्रामीण लोग इसकी सब्जी बनाकर खाते हैं। ये दो प्रकार की होती हैं। एक को खुंभी कहते हैं जो लम्बाकार लिये हुए चार से छः इंच लम्बी होती हैं। जिसका वैज्ञानिक नाम पोडैक्सिस पिस्टिलारिस लॉन्ग ( Podaxis pistillaris) हैं। सूखने पर इसके अन्दर काला पाउडर निकलता हैं। दूसरी जिसे खूंभा कहते हैं जिसका वैज्ञानिक नाम फेलोरिनिया हरकुलियाना ( Phellorinia herculeana)  हैं। यह गोलाकार हनुमान जी की गदा की तरह होती हैं। सूखने पर इसके अंदर का पाउडर भूरे रंग का निकलता हैं। खूंभा और खुंभी दोनो खाने के काम आते हैं। स्वाद और गुणवता दोनों में बराबर होती हैं।        गाँवों के लोग इनके पाउडर को सावधानी से इकटठा करके बंद डिब्बों में पैक करके औषधि के रूप में काम लेने के लिए सुरक्षित रखते हैं। इस पाउडर के भरे हुए डिब्बे को बिना नमी वाली जगह पर और छाया में रखा ज

ऑर्गेनिक भोजन उपलब्ध हो सकता हैं।

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  आजकल ऑर्गेनिक भोजन हर व्यक्ति करना चाहता हैं। लेकिन हमारे भोजन सामग्री में रासायनिक जहर इतना घुल मिल गया हैं कि ऑर्गेनिक वस्तुएँ मिलना मुश्किल काम हो रहा हैं। अनाज , दालें , सब्जियाँ और फल जहाँ भी पैदा होती हैं , रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग होता ही हैं। ऐसी परिस्थिति में ऑर्गेनिक भोज्य पदार्थ मिलना एक मुश्किल काम हैं , लेकिन दुष्कर नहीं हैं।                               आज आपसे में बात करना चाहता हूँ कि आपको ऑर्गेनिक अनाज , दालें और सब्जियाँ कैसे उपलब्ध हो सकती हैं। भारत के किसान जिनके पास केवल वर्षा आधारित खेती होती हैं , सिंचाई का कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं , वे किसान अपने खेतों में केमिकल , फर्टीलाईजर का उपयोग करते ही नहीं हैं। असिंचित फसलों में रोग प्रतिरोधक क्षमता गजब की होती हैं। अतः उन्हें पेस्टिसाईड की भी आवश्यकता नहीं होती हैं। सौभाग्य से अभी भी हमारे देश के हर प्रांत में ऐसे कई क्षेत्र हैं , जहाँ असिंचित फसलों की खेती की जाती हैं। यह वर्षा आधारित खेती पीढ़ियों से हजारों वर्षो से करते आ रहे हैं। अपनी भोजन की आपूर्ति के लिए किसान इन फसलों की खेती करता आ रहा हैं , जो

दक्षता किसी की बपौती नहीं होती

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  यह सच्ची घटना तीन आदिवासी बहनों की हैं , जो गुजरात के अम्बा जी के आस-पास की पहाड़ियों में रहती हैं। आदिवासी परिवार गरासिया से सम्बन्ध रखने वाली ये तीनां लड़कियाँ मार्केटिंग के काम में इतनी निर्पूण हैं कि एम.बी.ए. को भी पीछे रख रही हैं। उनके खेतों में लौकी का बीज बोया जाता हैं। फल लगने पर रोज 20-20 लौकी की तीन गठरियां बना कर  अम्बा जी में मार्केट में बेचने के लिए आ जाती थी। उनकी मार्केटिगं की स्टाइल गजब की थी। तीनों लड़कियाँ अपनी-अपनी गठरी खोलकर 20-30 फूट की दूरी पर बैठती थी। एक लड़की आवाज लगाती थी। पच्चीस रूपये की एक लौकी , दूसरी लड़की आवाज लगाती थी बीस रूपये की एक लौकी और तीसरी लड़की आवाज लगाती है कि बीस रूपये की दो लौकी। तीनों लड़कियाँ काफी तेज आवाज में बोलकर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती थी। वास्तव में तो उन्हे बीस की दो लौकी ही बेचनी थी। लेकिन सबसे छोटी वाली की सेल जल्दी हो जायें अतः वह उत्तरोत्तर ज्यादा भाव रखती थी। स्वाभाविक हैं बीस रूपये की दो लौकी का माल सबसे जल्दी बिक जायेगा। माल बिकते ही दूसरी लड़कियाँ भी दस-दस लौकी उसको दे देती थी। आवाज लगाने का सिलसिला चालू रहता था। इ

ग्रामीण सरकारी स्कूलों का बढ़ता स्तर

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  राजस्थान के सीमावर्ती बाड़मेर जिले के धोरीमन्ना कस्बे के रहने वाले भीखाराम प्रजापति (भोमरिया) की बेटी पैम्पो प्रजापति ने कोरियन भाषा में उच्च शिक्षा प्राप्त की। पेम्पों प्रजापति पिछले 5 वर्षो से कोरियन भाषा का अध्ययन कर रही हैं और अब ग्लोबल कोरिया स्कॉलरशिप ( 14 हजार डॉलर प्रतिवर्ष) प्राप्त कर दक्षिण कोरिया की ईवाह वूमेन यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा प्राप्त करेगी। पूरे भारत में 20 छात्राओं का चयन इस स्कॉलरशिप के लिए हुआ हैं , जिसमें से पेम्पों ने पाँचवां स्थान प्राप्त किया हैं। पिछले सप्ताह पैम्पो प्रजापति अपने गाँव धोरीमन्ना आई हुई थी। उसके सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन उसके घर पर किया गया। राजस्थान सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्री श्री सुखराम विश्नोई ने विशेष रूप से आकर आर्शीवाद प्रदान किया। इस समारोह में स्थानीय राजनीतिज्ञ , वरिष्ठ समाज सेवक एवं भीखाराम प्रजापति के सभी रिश्तेदारों ने भाग लिया। श्री सुखराम विश्नोई ने पैम्पो प्रजापति को आर्शीवाद देते हुए कहा कि इस लड़की ने पूरे परिवार का , गाँव का , पूरे समाज का , राजस्थान का एवं पूरे भारतवर्ष का नाम रोशन किया हैं। इस छोटे से गाँ

गावो विश्वस्य मातरः

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  गुजरात के तापी जिले की एक अदालत ने कहा कि जिस दिन पृथ्वी पर गाय का एक भी बूंद खून नहीं गिरेगा , उसी दिन धरती की समस्याएँ समाप्त हो जाएंगी।                अदालत ने महाराष्ट्र से गो तस्करी के दोषी युवक आरिफ अंजुम को आजीवन कारावास और पांच लाख रूपये जुर्माने की सजा सुनाते यह टिप्पणी की। सत्र न्यायाधीश एसवी व्यास ने आदेश में कहा कि धर्म गाय से पैदा होता हैं , क्योंकि धर्म वृषभ के रूप में होता हैं और गाय के पुत्र को वृषभ कहा जाता हैं। अदालत ने संस्कृत के एक श्लोक को भी उद्धृत किया , जिसमें कहा था कि अगर गाय विलुप्त हो जाती है , तो ब्रह्यांड का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। वेद के छः अंगों की उत्पति गायों के कारण हुई। गुजराती भाषा में 24 पेज के आदेश में कोर्ट ने कहा कि गोहत्या , तस्करी की घटनाएं सभ्य समाज के लिए शर्मनाक हैं। कोर्ट ने दो श्लोकों का उल्लेख किया , जिसमें कहा है कि जहाँ गायें सुखी रहती हैं , वहां समस्त धन-संपति की प्राप्ति होती हैं। गायें दुखी रहती हैं , तो सब नष्ट हो जाता हैं।                माननीय कोर्ट का यह फैसला सराहनीय हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश हैं। भारत की खेती गौ प्

गेहूँ की जगह : मोटा अनाज खायें

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  बचपन में हमें जौ और चना की मिक्स रोटी बनाकर खिलायी जाती थी। चैत्र के महीने में चना और जौ की नई फसल आ जाती थी। इनको बराबर मात्रा में मिलाकर हाथ की चक्की से पीसा जाता था। जिसे बेझड़ की रोटी कहते थे। दीपावली के पहले बाजरा और ज्वार की फसल आ जाती थी। इनकी अलग-अलग रोटी बनती थी। जिन्हे सोगरा कहते थे। मिट्टी के तवे और चूल्हे पर बनायी गयी ये रोटी अत्यधिक पौष्टिक और स्वादिष्ट होती थी। दीपावली से लेकर होली तक यही रोटी खाई जाती थी। बरसात के दिनों में कभी बाजरा , कभी ज्वार , कभी बेझड़ की रोटी खाई जाती थी। गेहूँ की रोटी नहीं खाते थे। केवल त्यौंहार के दिन या विशेष मेहमान आने पर ही गेहूँ की रोटी बनती थी। रेगिस्तानी जिलों में वर्ष पर्यन्त बाजरी का सोगरा ही खाया जाता था। वहाँ कोई दूसरा अनाज पैदा नहीं होता था। हरी सब्जियाँ नहीं के बराबर खाते थे। खेतों में पैदा होने वाली ऑर्गेनिक सब्जियाँ जैसेः- टीण्डसी , मतीरा , काकड़ी , ग्वार फली , चवला की फलियां आदि बनती थी। चना व मूंग की मिक्स दाल व कढ़ी रोज बनती थी। काचरा मिर्च की चटनी जरूर बनती थी। सोगरा के साथ इनका मेल होता था। बड़ियां , राबोड़ी , खीचिया की रसेदार सब

ऑर्गेनिक जीवन पद्वति : एक अच्छी शुरूआत

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  नेशनल हाईवे नं. 2 पर वाराणसी के पास ग्रामीण क्षेत्र में एक अनोखा ऑर्गेनिक ढ़ाबा हैं। इस ढ़ाबे का संचालन दो बहनें करती हैं। यह ढ़ाबा ग्रामीण लुक देता हुआ बनाया गया हैं। डायनिंग हॉल , किचन , रिसेप्शन आदि को देखने से मालूम होता हैं कि यह डिजाइन 60-70 वर्ष पुरानी हैं। अन्दर पहुँचते ही छोटा कुआँ , बाल्टी और रस्सी हाथ-पैर धोने की चौकी आदि की व्यवस्था की गयी हैं। हाथ-पैर धोकर ही डायनिंग हॉल में प्रवेश किया जा सकता हैं। पंगत में बैठकर पाटे के ऊपर कांसी की थालियों में भोजन परोसा जाता हैं। ज्ञातव्य हो कि इस ढ़ाबे में भोजन बनाने , परोसने व रिसेप्शन का सारा काम लड़कियाँ ही करती हैं। इतना ही नहीं अनाज , दालें , सब्जियाँ , फल , मसाले आदि भी आस-पास के गाँव नैपुरा , तारापुर टिकरी , मूराडीह आदि की महिलायें जैविक खाद के द्वारा ऑर्गेनिक रूप से उत्पादन करके इस ढ़ाबे में पहुँचाती हैं। खाना सर्व करने वाली प्रतिभा और प्रियंका काम के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी कर रही हैं। इस ढ़ाबे में अभी 60 महिलायें कार्यरत हैं। इस ढ़ाबे में काम आने वाले आटा व मसालें की पिसाई भी यहाँ की महिलायें पुराने तरीको से करती रहती हैं। दूर-दूर