लुप्त होती महत्त्वपूर्ण पागी कला

                 


पश्चिमी राजस्थान जहाँ जीवन संघर्ष से भरा पड़ा है, फिर भी यहाँ पर विभिन्न प्रकार की कलाएँ प्रसिद्ध थी। यहाँ के कुटीर उद्योग और हैण्डीक्राफ्ट आज पूरे विश्व में नाम कमा रहे है। विभिन्न प्रकार की बारीक से बारीक कारीगरी में रेगिस्तान का कोई मुकाबला नहीं है। भवन निर्माण कला के हजारों साल पुराने महल, किले, मन्दिर आदि देखने के लिए पूरे विश्व से लोग यहाँ आते है। बुनकर उद्योग चरम सीमा पर विकसित था। आज भी बकरी के बाल, भेड़ के बाल, ऊँट के बाल आदि से बने हुए वस्त्र, दरी और गलीचे विश्व प्रसिद्ध है। रोहिड़ा की लकड़ी पर बारीक कारीगरी में बाड़मेर की कोई सानी नहीं है। हर गाँव में कशीदाकारी महिलायें बहुत बारीकी से करती है। इन कलाकृतियों को कई स्वंयसेवी संस्थाएँ पूरे विश्व में प्रचारित करती रहती है।

                     पागी एक ऐसी कला है जो जमीन पर पडे़ हुए पदचिन्हों को परख लेती है। यदि किसी गाँव में रात को चोरी हो जाती थी तो गाँव के लोग सबसे पहले पदचिन्ह देखते थे और उन्हें किसी विशेषज्ञ के द्वारा पहचान कराई जाती थी। जिससे चोर को पकड़ने में आसानी होती थी। इस विद्या के जानकार को ‘‘पागी‘‘ कहते थे। गाँवो में पागी का बहुत सम्मान होता था। यदि तुरंत पागी नहीं मिलता था तो पदचिन्हों को तगारी से ढ़क कर रख देते थे। जब भी पागी उपलब्ध होता था वह उन पदचिन्हों की पहचान करके बता देता था। हर गाँव में एक न एक पागी अवश्य होता था। यदि पदचिन्हों की पहचान एक पागी से संभव नहीं होती थी तो कई पागी बुलाये जाते थे। पागी से जुडे़ हुए कई आश्चर्यजनक किस्से गाँवों में प्रचलित थे।

 एक किस्सा आता है जैसलमेर के लादू भील का। वह अपने क्षेत्र का बहुत मशहुर पागी हुआ करता था। दूर-दूर गांँवों के लोग आवश्यकता पड़ने पर उसको बुलाते थे। कहते है कि एक बार उसको किसी गाँव में पदचिन्ह देखने के लिए बुलाया गया। उसने देखकर बताया कि यह ऊँटनी का पैर है। साधारणतयाः ऊँट और ऊँटनी के पदचिन्ह का अंतर सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता। दूसरा उसने उस ऊँटनी के चलने की गति बतायी और उसने बताया कि वह मध्यम गति से भाग रही थी। तीसरी बात सुनकर तो और भी आश्चर्य होता है। उसने बताया कि उसके ऊपर एक पुरूष एवं एक महिला बैठे है। इतना ही नहीं उसने यह भी बता दिया कि महिला के पेट में कितने महीनें का गर्भ था। इस प्रकार का निर्णय देना अपने आप मे इस कला की पराकाष्ठा है।

                     दूसरा उदाहरण पाली जिले का है। एक चौधरी के घर से रात को कोई बैलों की जोड़िया चुराकर ले गया। घर के सभी लोग जहाँ सोते थे उसके आस-पास ही बैल बंध्ों हुए थे। कब चोर आये, कितने चोर थे, कैसे ले गये इन सब प्रश्नों का उत्तर घरवालों के पास नहीं था? सुबह होते ही पदचिन्हों को ढ़का गया, जो सबसे पहला काम होता है। फिर पागी को बुलाकर लाये। पागी ने आकर ठीक से देखा अपने ईष्ट देव को याद किया और बताया कि छः चोर थे जिनकी उम्र पच्चीस वर्ष से पैंतीस वर्ष के बीच में थी। बैलों को खोलकर सभी एक साथ निकले। आगे जाकर तीन भागों में विभक्त हो गये और अलग-अलग दिशा में गये। उनके जाने का समय भी लगभग बता दिया और उसने यह भी बताया कि जिस गति से वह निकले है इस समय यहाँ से इतने मील दूर पहुंच गये है। उन लोगों की जितनी दूरी पागी ने बतायी थी अंदाज से उन गाँवों तक पहुंचने के लिए अपने गाँव के ठाकुर से घोडे़ और घुड़सवार उपलब्ध कराने की प्रार्थना की। ठाकुर साहब ने पागी द्वारा बताई गयी दिशाओं में दो-दो घुड़सवार तुरंत रवाना कर दिये। शाम तक सभी चोर व चोरी किये हुए बैल बरामद हो गये। उस जमाने के पुलिस थाने भी इन पागी लोगां की मदद लिया करते थे और अपराध को रोकने और अपराधी को पकड़ने में सहायता मिलती थी। इस प्रकार के कई किस्से हर गाँव में प्रचलित थे। वास्तव में उस जमाने की यह पदचिन्ह परखने की कला बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ करती थी। उन पागी लोगों के निर्णय भी सटीक हुआ करते थे।

                    आजकल वन विभाग के कर्मचारी और कई वन्यजीव गणना में उनके पदचिन्हों का अवलोकन बारीकी से करते है। वन्य जीव विशेषज्ञों को पदचिन्ह परखने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। किसी भी पदचिन्ह को देखकर यह बताया जा सकता है कि यह पदचिन्ह किस वन्यजीव का है? बहुत अधिक पदचिन्ह होने पर उनकी पहचान करके यह भी बताया जा सकता है कि इस झुण्ड में लगभग कितने वन्यजीव है? साथ ही वयस्क और शिशुओं की भी पहचान की जाती है। पदचिन्ह को देखकर उनकी गति का भी अनुमान लगाया जा सकता है।

                     इतनी महत्त्वपूर्ण पागी विद्या अब लुप्त प्रायः हो गयी है। कई जगह इसके जानकर अभी भी है। लेकिन उनको सामाजिक मान्यता नहीं दी जाती है।

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