रेगिस्तान में पनपती बहुमूल्य खूंभी

 



जून, जुलाई, अगस्त बारिश के महीनों में जब बादलों की गड़गड़ाहट होती हैं तब रेगिस्तान के रेतीले भू-भाग में खूंभियां उगना शुरू हो जाती हैं। सफेद रंग की खुंभी ओरण, गोचर, चारागाह, पड़त भूमि, बाड़ के किनारे, नदी नालों के किनारे आदि जगहों पर उगती हैं। अनादिकाल से ग्रामीण लोग इसकी सब्जी बनाकर खाते हैं। ये दो प्रकार की होती हैं। एक को खुंभी कहते हैं जो लम्बाकार लिये हुए चार से छः इंच लम्बी होती हैं। जिसका वैज्ञानिक नाम पोडैक्सिस पिस्टिलारिस लॉन्ग (Podaxis pistillaris) हैं। सूखने पर इसके अन्दर काला पाउडर निकलता हैं। दूसरी जिसे खूंभा कहते हैं जिसका वैज्ञानिक नाम फेलोरिनिया हरकुलियाना (Phellorinia herculeana)  हैं। यह गोलाकार हनुमान जी की गदा की तरह होती हैं। सूखने पर इसके अंदर का पाउडर भूरे रंग का निकलता हैं। खूंभा और खुंभी दोनो खाने के काम आते हैं। स्वाद और गुणवता दोनों में बराबर होती हैं।

       गाँवों के लोग इनके पाउडर को सावधानी से इकटठा करके बंद डिब्बों में पैक करके औषधि के रूप में काम लेने के लिए सुरक्षित रखते हैं। इस पाउडर के भरे हुए डिब्बे को बिना नमी वाली जगह पर और छाया में रखा जाता हैं। अधिकतर घरों में जो चूल्हा जलता हैं। उसके ऊपर बाँध देते हैं। किसी की हड्डी क्रेक होने पर जानकार लोग इस पाउडर को मक्खन में मिलाकर चटाते हैं। बारीक से बारीक हड्डी भी इससे जुड़ जाती हैं। खुंभी आजकल बाजार में भी खूब बिकती हैं। जिसमें कैल्शियम, प्रोटीन, विटामिन डी आदि अनेक तत्व पाये जाते हैं। यह खुंभी बहुत कम समय तक उपलब्ध रहती हैं। इसका उपयोग न्यूट्रासर्जीकल, कॉस्मेटिक और प्रोबायोटिक के रूप में होता हैं। एक अध्ययन के अनुसार ऑस्ट्रेलिया के रेगिस्तानी क्षेत्र के आदिवासी लोग अपने बालों को काला करने में और शरीर पर टेटू बनाने में खूंभी के पाउड़र का उपयोग करते हैं। प्राकृतिक रूप से ऑर्गेनिक जगहों पर उगने वाली खुंभी की सब्जी अत्यंत स्वादिष्ट और ताकतवर होती हैं।

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