गेहूँ की जगह : मोटा अनाज खायें
बचपन में हमें जौ और चना की मिक्स रोटी बनाकर खिलायी जाती थी। चैत्र के महीने में चना और जौ की नई फसल आ जाती थी। इनको बराबर मात्रा में मिलाकर हाथ की चक्की से पीसा जाता था। जिसे बेझड़ की रोटी कहते थे। दीपावली के पहले बाजरा और ज्वार की फसल आ जाती थी। इनकी अलग-अलग रोटी बनती थी। जिन्हे सोगरा कहते थे। मिट्टी के तवे और चूल्हे पर बनायी गयी ये रोटी अत्यधिक पौष्टिक और स्वादिष्ट होती थी। दीपावली से लेकर होली तक यही रोटी खाई जाती थी। बरसात के दिनों में कभी बाजरा, कभी ज्वार, कभी बेझड़ की रोटी खाई जाती थी। गेहूँ की रोटी नहीं खाते थे। केवल त्यौंहार के दिन या विशेष मेहमान आने पर ही गेहूँ की रोटी बनती थी। रेगिस्तानी जिलों में वर्ष पर्यन्त बाजरी का सोगरा ही खाया जाता था। वहाँ कोई दूसरा अनाज पैदा नहीं होता था।
हरी सब्जियाँ नहीं के बराबर खाते थे। खेतों में पैदा होने वाली ऑर्गेनिक
सब्जियाँ जैसेः- टीण्डसी, मतीरा, काकड़ी, ग्वार
फली, चवला की फलियां आदि बनती थी। चना व मूंग की मिक्स दाल व कढ़ी रोज बनती
थी। काचरा मिर्च की चटनी जरूर बनती थी। सोगरा के साथ इनका मेल होता था। बड़ियां, राबोड़ी, खीचिया
की रसेदार सब्जी में सोगरा चूरकर खाने का स्वाद ही निराला था। आलू, टमाटर, मटर, गोभी
आदि आजकल की आम सब्जियाँ उस समय गाँवों में उपलब्ध नहीं थी। प्याज अवश्य वर्ष पर्यन्त
मिलता था। नई फसल आने पर प्याज की 5-10 बोरी खरीद कर चारे
में भण्डारण कर लेते थे।
गेहूँ की फसल ऐसा बताते है, कि अमेरिका से आयी
हैं। अमेरिका के हदय रोग विशेषज्ञ डॉ विलियम डेविस ने फूड हैबिट पर 2011 में व्हीट बेली
(Wheat
belly) नाम की पुस्तक लिखी
थी। यह पुस्तक ऑन लाईन भी उपलब्ध हैं। उसमें डॉ विलियम ने बताया कि गेहूँ खाने से मोटापा, डायबिटिज
और हदयरोग तेजी से बढ़ रहा हैं। उसके विपरीत मोटे अनाजों से शरीर स्वस्थ और सुदृढ़ रहता
हैं। लगातार गेहूँ खाने का ही परिणाम है कि मात्र चालीस वर्ष में भारत में मोटापा और
डायबिटिज विश्व में सर्वाधिक हो गया हैं। गेहूँ की रोटी कम आँच पर कम समय में बन तो
जाती हैं, लेकिन जल्दी पच नहीं पाती।
अमेरिका के साथ-साथ भारत
में भी कई लोगो ने स्वस्थ रहने के लिए मोटे अनाज की रोटियाँ खाना शुरू कर दी हैं। भारत
में भी मल्टीग्रेन ब्रेड़ का मार्केट बढ़ गया हैं। वास्तव में मोटा अनाज डायबिटिज, हदय
रोग, मोटापा और कैंसर आदि बीमारियों की रोकथाम के लिए अच्छा विकल्प हैं।
भारत के अर्न्तराष्ट्रीय
प्रयास के कारण यह वर्ष मिलेट वर्ष के रूप में मनाया जा रहा हैं। मोटे अनाजों को भारत
में अब ‘‘श्रीअन्नम‘‘ कहना शुरू कर दिया हैं। हमारे ग्रथों में देवताओं की पूजा में
जौ और अक्षत का ही वर्णन हैं। पुराने शास्त्रों में गेहूँ का कही जिक्र नहीं हैं। आजकल
फूड प्रोसेसिंग इण्डस्ट्रीज ने भी मोटे अनाजों से कई प्रकार के खाद्य पदार्थ बनाने
की शुरूआत की हैं। यह एक सराहनीय कदम हैं। जिस क्षेत्र में जो मोटा अनाज होता हैं।
वही वहाँ का मुख्य भोजन होता हैं। जलवायु के अनुसार भी स्थानीय अनाज ही पाचक और स्वास्थ्यप्रद
रहता हैं।
बदलते हुए मौसम के झपेटे मोटे अनाज की फसलें आराम से सहन कर लेती हैं।
इन स्थानीय फसलों में अतिवृष्टि और अल्पवृष्टि को सहने की क्षमता होती हैं। इनमें रोग
प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक होती हैं। इनका उत्पादन विपरीत परिस्थितियों में भी कम नहीं
होता हैं। स्थानीय लोग अपनी फसलों का बीज आगामी वर्षो के लिए सुरक्षित रखते हैं। इन
फसलों को केमिकल फर्टीलाईजर व केमिकल पेस्टिसाईड की आवश्यकता नहीं होती हैं। मोटे अनाज
अधिकतर ऑर्गेनिक व वर्षा आधारित ही होते हैं। इन फसलों को अतिरिक्त सिंचाई की कोई आवश्यकता
नहीं होती हैं। अतः मोटे अनाज ही विश्व को खाद्य संकट से तो बचायेगें ही साथ ही लोगो
को स्वस्थ भी रखेंगे।
बहुत ही बढिया लिखा सा आपने . 60 के दशक में आई हरित क्रांति के दौरान हमने गेहूं और चावल को अपनी थाली में सजा लिया और मोटे अनाज को खुद से दूर कर दिया. जिस अनाज को हम साढ़े छह हजार साल से खा रहे थे, उससे हमने मुंह मोड़ लिया और आज पूरी दुनिया आप जैसे विद्वानों के समझाने से उसी मोटे अनाज की तरफ वापस लौट रही है.आप इसी तरह हमारा मार्गदर्शन करते रहे .सादर प्रणाम
ReplyDeleteVery useful information sir.
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