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Showing posts from September, 2023

कौड़ी के चमत्कार

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                 कौड़ी एक घोंघे की भांति समुंद्री जीव होता है जिसके ऊपर कठोर अस्थि का खोल लगा रहता है। यह अलग-अलग जगह पर सफेद , पीली , चितकबरी और गुलाबी रंग की पाई जाती है। समुंद्र के किनारे मछुआरे इसको बेचते हुए मिल जाएंगे। पूरे विश्व में सभी समुंद्रो के किनारे अलग-अलग प्रकार की कौड़ी मिलती है। कौड़ी के कई प्रकार के उपयोग लोग करते है।           आदिवासी लोग इसके कई प्रकार के गहने बनाकर अपने शरीर पर धारण करते हैं। उनके लिये कौड़ी मुफ्त में मिलने वाली चीज है। जिससे अपने शरीर की सजावट करते है। अपने पालतू पशुओं को भी कौड़ी के गहने बनाकर सजावट के लिए पहनाते है। गाय , बैल , ऊंट आदि पालतू पशुओं को कौड़ी से सजाया जाता है। छोटे बच्चों को नजर से बचाने के लिए उसके गले में कौड़ी बांधकर रखा जाता है।           आज से हजार साल पहले सीमेंट का आविष्कार नहीं हुआ था। उस समय के भवनों , महलों , किलों आदि में अंदर का प्लास्टर कौड़ी को पीसकर उससे किया जाता था। बैल या भैंसें की मदद से पीसने वाले घट में कौड़ी को पानी और चूना मिलाकर पीसा जाता था। जब वह एकदम टेलकम पाउडर जैसा चिकना बारीक हो जाता था तब राजमिस्त्री उससे

जल संरक्षण की जीवंत परिपाटी

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                           पश्चिमी राजस्थान में वर्षा के जल को संग्रहीत करना बहुत पुरानी परिपाटी है। हर गाँव में चाहे वह छोटा हो या बड़ा एक मुख्य तालाब हुआ करता है। इसके अलावा अलग-अलग जगह पर छोटे-छोटे तालाब भी बनवाये हुये थे। जिनको नाड़ी या नाड़ा कहते है। इन जल स्रोतों को जीवन्त एवं शुद्ध रखने के लिये कई सामाजिक और धार्मिक कार्यक्रम तालाब के किनारे पर आयोजित करने की परंपराएँ सतत् चलती रहती है। इन परंपराओं की शुरूआत कब से हुई यह कह नहीं सकते लेकिन रेगिस्तान के हर शहर कस्बा , गांव व ढाणीयों में जलस्रोतों को पवित्र एवं जीवंत रखने के लिए विभिन्न रीति रीवाज होते रहते है। इन रीवाजों का निश्चित समय भी होता है।                     हर गाँव में विष्णु भगवान , कृष्ण भगवान का मंदिर होता है। जिसे स्थानीय भाषा में ठाकुरजी का मंदिर कहते है। गाँव के ही वैष्णव संप्रदाय के पुजारी ठाकुरजी के मंदिर की पूजा , सफाई एवं देखरेख करते है। इन पुजारियों के भरण पोषण के लिए गाँव वाले अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार अनाज आदि दिया करते है। भादवा सुदी एकादशी को दिन के तीसरे प्रहर में ठाकुरजी के विग्रह को ढोल नगाड़ों के साथ

साबूदाना

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                      साबूदाना का नाम आते ही मोतियों की चमक वाले सफेद-सफेद दाने जिनको अधिकतर व्रत में खाया जाता है ध्यान में आता है। फलाहार के रूप में इनका सेवन किया जाता है। साबूदाना के कई व्यंजन बनाये जाते हैं। यह एक स्वास्थ्यवर्धक भोजन है।           गर्मी पर नियंत्रण करने के लिये और शरीर में बढ़ी हुई गर्मी को कम करने के लिये साबूदाना का प्रयोग चावल के साथ किया जाता है। पेट खराब होने दस्त लगने पर साबूदाना की खीर बिना दूध के बनाकर खाई जाती है। साबूदाना में पाया जाने वाला पोटेशियम ब्लड सर्कुलेशन को नियंत्रण करता है और मांसपेशियों को ताकत देता है। साबूदाना पाचन क्रिया को ठीक करता है। गैस व अपच की समस्या को दूर करता है। साबूदाना में कार्बोहाइड्रेड की अच्छी मात्रा होता है। जो शरीर को तुरंत व आवश्यक ऊर्जा देता है। साबूदाना में फोलिक एसिड और विटामिन बी , कॉम्प्लेक्स भी होता है। जो गर्भवती महिलाओं के लिये लाभकारी है। साबूदाना में मौजुद कैल्शियम , आयरन और विटामिन के. भरपूर होता है। जो हड्डियों को मजबूत बनाता है। साबूदाना वजन बढ़ाने के लिये भी खाया जाता है। साबूदाना का फेस मॉस्क बनाकर चेहरे पर

जूते पहनकर घर में आना गंदी आदत

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                      अमेरिका में अभी यह रिसर्च हुई है कि जूते पहनकर घरों में आने से बीमारियाँ बढ़ती है। यह खबर छपने के बाद से अमेरिका में कुछ लोग सर्तक हो गये है। वे अपने जूते और मोजे घर से बाहर उतारकर पैरों को धोकर ही घर में प्रवेश करते है। इस रिवाज का प्रचार-प्रसार कई स्वंय सेवी संगठन और हेल्थवर्कर कर रहे है। इसका प्रभाव नई पीढ़ी में भी देखने को मिल रहा है। अमेरिका में काम करने वाले अनेक हिन्दु संगठन और संत महात्मा इस बात का प्रचार कर रहे है। परिणामतः बहुत बड़ा वर्ग अब जूते घर के बाहर ही उतारकर अन्दर जाते है। जहाँ जूते उतारे जाते है वहाँ पर बैठकर जूते पहनने की और पैर धोने की व्यवस्था कई घरों में होने लगी है।                      भारत के सनातन नियमों में जूता उतारकर ही घर और मन्दिर में प्रवेश होता है। आजकल कुछ अतिआधुनिक और पढ़े लिखे लोगों में एक बुरी आदत घर करती जा रही है और वे जूते पहनकर पूरे घर में तो घूमते ही है , साथ ही रसोईघर में भी बेधड़क आते जाते है। टेबल कुर्सी पर खाना खाते समय जूते नहीं उतारते। आजकल सामूहिक भोजन भी बफे सिस्टम से चल रहा है। जिसमें जूते उतारने का कोई श्रम नहीं कर

पर्यावरण शहीदी मेला - खेजड़ली

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                  पूरे विश्व में पर्यावरण के लिये लगने वाला एकमात्र वृक्षमेला शहीदों की याद में जोधपुर जिले के खेजड़ली गांव में भादवा सुदी दशम् को प्रतिवर्ष लगता है। खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित किया गया है। खेजड़ी का वृक्ष रेगिस्तान के लोगों के लिए कल्पवृक्ष है। यहाँ के लोगों के जीवन में खेजड़ी का अत्यंत महत्त्व है।           संवत् 1787 में जोधपुर के राजा अभयसिंह के सैनिक खेजड़ली गांव में खेजडी के वृक्षों को काटने के लिये गए। राजा के सैनिक दिवान गिरधर भण्डारी के नेतृत्व में खेजडी के पेड़ काटने लगे। यह देखकर वहाँ पर विश्नोई समाज के लोग खेजड़ी को बचाने के लिये आगे आए। अमृता देवी विश्नोई ने अपने प्राणों का बलिदान खेजड़ी को बचाने के लिए दिया था। उनके साथ 300 से अधिक लोगों ने वृक्षों को बचाने के लिये अपने प्राण दे दिए। यह खबर आग की तरह पूरे क्षेत्र में फैल गयी। आसपास के विश्नोई समाज के लोगों की अपार भीड़ वहाँ इक्ट्ठी हो गई। बात राजा तक पहुँची। राजा के आदेश से सारे सैनिकों को वापस बुला लिया गया।                 यह मेला उन्हीं शहीदों की याद में प्रतिवर्ष जोधपुर से 28 किलोमीटर दूर खेजड़ल

अश्वगंधा

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              जड़ी बूटीयों की महारानी अर्थात् क्वीन ऑफ हर्बस जिनसेंग ( Ginseng ) को कहते है और अश्वगंधा को भारतीय जिनसेंग कहते है। कोरोना काल के बाद से अश्वगंधा का चमत्कार सबने देख लिया है। अश्वगंधा में इम्यूनिटी बढ़ाने की बहुत ताकत होती है। आयुर्वेद में शक्तिवर्धक , धातुवर्धक , मानसिक रोगों आदि में अश्वगंधा का बहुतायत से उपयोग होता है। प्राकृतिक रूप से बहुत पहले यह नागौर में उपलब्ध होती थी। अतः इसको नागौरी अश्वगंधा के नाम से भी लम्बे समय से जाना जाता है। आजकल इसकी बड़े पैमानें पर खेती राजस्थान के पूर्वी जिलों और मध्यप्रदेश के पश्चिमी जिलों में हो रही है। इसका निर्यात भी बड़ी मात्रा में हो रहा है। राजस्थान में रामगंज मंड़ी और मध्यप्रदेश में नीमच मंडी इसकी बड़ी मण्डियाँ है। यहाँ किसान अपना माल ले जाकर बेचते है और यहाँ के व्यापारी सभी दवा बनाने वाली कम्पनीयों को और निर्यातकों को अश्वगंधा का माल बेचते है। इन दिनों मण्डियों में व्यापारियों ने अश्वगंधा को प्रोसेस करने के लिए जैसेः- क्लीनिंग , शोर्टिंग , ग्रेडिंग और पैकिंग आदि के लिये मशीने लगा रखी है।                अश्वगंधा का उपयोग व्यक्ति

मयूर पंख

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                      मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। इसके पंख सभी पक्षियों के पंखों से सुन्दर होते है। वैसे तो वर्षपर्यन्त मोर अपने पंखों को थोड़ा-थोड़ा गिराता रहता है लेकिन कार्तिक व चैत्र मास में जब ऋतु परिवर्तन होता है। उस समय कुछ अधिक ही पंखों को गिराता है। गाँव के बच्चे इन पंखों को इकठ्ठा करते रहते है। प्रत्येक गाँव में कुछ लोग घूम-घूम कर मोर के पंख खरीदते है। उसके बदले में बच्चों को खाने-पीने की चीजें जैसेः- मूंगफली , चॉकलेट , बिस्कुट आदि देते रहते है। कुछ लोग मोर के पंखों के बदले में पैसा भी देते है। इसी लालच में बच्चे मोर पंख ढूंढ-ढूंढ कर इकठ्ठा करके बेचते है। फेरी लगाने वाले छोटे व्यापारी बहुत सारे मोर पंख इकठ्ठा करके शहरों में इनके बड़े व्यापारी को बेच देते है। बड़े व्यापारी इनके प्रोड्क्ट बनाकर दुकानदारों को देते है। विशेषकर हर तीर्थ स्थान में मोर पंख के प्रोड्क्ट बिकते दिखाई दे जाते है। वैसे मोर पंख के निर्यात पर रोक लगी हुई है।           ऐसी मान्यता है कि घर में इसे रखने से कई तरह के वास्तुदोष दूर होते है। यह घर की आर्थिक स्थिति को मजबूत करता है और घर से नकारात्त्मक ऊर्जा दूर

शंखपुष्पी

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                           जैसा कि इस पौधे के नाम से ही पता चलता है कि इसके फूल शंख के रंग की तरह सफेद और आकृति में शंख जैसे दिखाई देते है , इसलिए इसको शंखपुष्पी कहते है। शंखपुष्पी एक बहुपयोगी जड़ी बूटी है। जो राजस्थान के रेतीले , कंकरीले और पत्थरीले क्षेत्रों में बहुतायत से पायी जाती है। खेतों में भी खरीफ की फसलों में खरपतवार के रूप में बहुत उगती है। यह जमीन पर फैलने वाला मुलायम और रोम वाला पौधा होता है। इसकी शाखाएं लम्बी और फैली हुई होती है। शंखपुष्पी के वैसे तो सफेद फूल ही होते है। लेकिन कुछ फूल गुलाबी झांयी और कुछ फूल बैंगनी झांयी वाले भी होते है। सूर्योदय के आस-पास इसके फूल खिलते है। जो सूर्योदय से दो घण्टे तक खिले रहते है। उसी समय इसकी पहचान करके वैद्य लोग या संग्रहकर्त्ता इसका कलेक्शन करते है। इसका संग्रह करने के लिए परिपक्व अवस्था अश्विन और कार्तिक , चैत्र और वैशाख महीने उत्तम माने गए है।                      शंखपुष्पी मुख्यतः दिमाग से सम्बन्धित सभी रोगों में काम आती है। स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए शंखपुष्पी का चूर्ण दूध और मिश्री के साथ मिलाकर प्रातःकाल लिया जाता है। ऐसा माना जा

चिया सीड

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                     विश्व के सुपर फूड्स में चिया सीड्स का महत्त्वपूर्ण स्थान है। चीया सीड़ मुख्यरूप से ग्वाटेमाला और दक्षिणी मैक्सिको में पाया जाता है। इस पौधे के बीज काम में लिये जाते है। इसकी मांग बढ़ने के कारण कम्बोडिया , आस्ट्रेलिया , बोलीविया , पेरू और अर्जेंटीना में भी इसकी खेती बड़ी मात्रा में की जा रही है। भारत में भी पिछले दस वर्षो से इसकी खेती राजस्थान , उत्तरप्रदेश , व मध्यप्रदेश में की जाने लगी है। चिया सीड़ में पोषक तत्त्व भरे पड़े है। कार्बोहाइड्रेट , प्रोटीन , फेट , एनर्जी , फाइबर , मैग्नीशियम , पोटेशियम , फास्फोरस आदि बड़ी मात्रा में पाये जाते है। मुख्य रूप से चिया सीड़ का उपयोग इसलिए किया जाता है कि इसमें एन्टीऑ़क्सीडेन्ट गुण होते है , कोलेस्ट्रॉल कम करने की क्षमता होती है , रक्तचाप को कम करता है , सूजन कम करता है , इसमें एंटीकैंसर गुण होते है और यह ब्लड शुगर को भी कम करता है। इतनी सारी खुबियों के कारण इसका सेवन दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।                      ऐसा माना जाता है कि चिया सीड़ का सेवन सिरम कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम कर सकता है , क्योंकि इसमें अनसैचुरेटेड ओमेगा-

पाम ऑयल

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                      भारत में खाद्य तेल का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में नहीं होता है अतः बाहरी देशों से आयात किया जाता है। आयात किये जाने वाले खाद्य तेलों में पाम ऑयल सबसे अधिक खरीदा जाता है। यह तेल मलेशिया , कम्बोडिया से खरीदा जाता है। पाम ऑयल हम सीधा उपयोग में नहीं लेते है। लेकिन प्रतिदिन खाने वाली कई चीजों में यह मिला होता है। वास्तविकता यह है कि हमारे दैनिक जिंदगी इसके बिना चल ही नहीं पा रही है। किसी प्रकार का जंक फूड हो , या स्ट्रीट फूड यहाँ तक कि आइसक्रीम में भी इस ऑयल का उपयोग होता है। इतना ही नहीं देश में जितने भी कुकिंग ऑयल बाजार में मिलते है उन सभी में पाम ऑयल मिलाया जाता है। विश्व में सबसे अधिक पाम ऑयल भारत ही आयात करता है। पाम ऑयल के कुल उत्पादन का 20 प्रतिशत केवल भारत उपयोग करता है।           एक जमाना था हमारे देश में खाद्य तेलों का उत्पादन खपत के अनुसार खूब होता था। खाद्य तेल भोजन में आवश्यक होता है। जिस जगह पर जो तिलहनी फसल होती थी वही तेल खाया जाता था। जैसेः-तिल का तेल व सरसों का तेल , भारत के मैदानी राज्यों में खूब पैदा होता था और यही खाया जाता था। गुजरात व आंध्र्रप

लुप्त होती महत्त्वपूर्ण पागी कला

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                      पश्चिमी राजस्थान जहाँ जीवन संघर्ष से भरा पड़ा है , फिर भी यहाँ पर विभिन्न प्रकार की कलाएँ प्रसिद्ध थी। यहाँ के कुटीर उद्योग और हैण्डीक्राफ्ट आज पूरे विश्व में नाम कमा रहे है। विभिन्न प्रकार की बारीक से बारीक कारीगरी में रेगिस्तान का कोई मुकाबला नहीं है। भवन निर्माण कला के हजारों साल पुराने महल , किले , मन्दिर आदि देखने के लिए पूरे विश्व से लोग यहाँ आते है। बुनकर उद्योग चरम सीमा पर विकसित था। आज भी बकरी के बाल , भेड़ के बाल , ऊँट के बाल आदि से बने हुए वस्त्र , दरी और गलीचे विश्व प्रसिद्ध है। रोहिड़ा की लकड़ी पर बारीक कारीगरी में बाड़मेर की कोई सानी नहीं है। हर गाँव में कशीदाकारी महिलायें बहुत बारीकी से करती है। इन कलाकृतियों को कई स्वंयसेवी संस्थाएँ पूरे विश्व में प्रचारित करती रहती है।                      पागी एक ऐसी कला है जो जमीन पर पडे़ हुए पदचिन्हों को परख लेती है। यदि किसी गाँव में रात को चोरी हो जाती थी तो गाँव के लोग सबसे पहले पदचिन्ह देखते थे और उन्हें किसी विशेषज्ञ के द्वारा पहचान कराई जाती थी। जिससे चोर को पकड़ने में आसानी होती थी। इस विद्या के जानकार को ‘‘

सिसकती राजस्थान की मरूगंगा-लूणी नदी

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          लूणी नदी राजस्थान की दूसरी सबसे बड़ी नदी है। यह पश्चिमी राजस्थान की भागीरथी से कम नहीं है। लूणी नदी की सहायक नदियाँ सुकड़ी , मीठड़ी , खारी , बांडी , जवाई , जोजरी , गूइया आदि नदियाँ जगह-जगह पर आकर मिलती है। बालोतरा तक लगभग सभी नदियाँ इसमें मिल जाती है। उसके बाद केवल लूणी नदी के नाम से विख्यात बहुत बड़ी नदी के रूप में कच्छ के रण में जाकर समाप्त हो जाती है। लूणी नदी का उद्भव अजमेर की नाग पहाड़ियों से होता है।                     पाली , जोधपुर , बालोतरा , जसोल आदि शहरों के औद्योगिक नगरों में कपड़े की रंगाई-छपाई के हजारों बडे़-बडे़ कारखाने है। इन कारखानों का रसायनयुक्त प्रदूषित जल प्रतिदिन इन नदियों में लाखों लीटर छोड़ा जाता है। एक समय था जब ये नदियाँ अपने किनारें बसे गाँवों की जीवन रेखा थी। हालांकि यह सब बरसाती नदियाँ थी लेकिन सबमें मीठा पानी होली तक बहता रहता था। नदी का पानी प्रतिवर्ष इतना रिचार्ज होता था कि सभी नदियों के दोनां किनारों पर बने हुए लाखों कुओं से लाखों हेक्टेयर भूमि सिंचाई की जाती थी। इन नदियों के किनारें सिंचित फसलों में गेहूँ , सरसों , जीरा , ईसबगोल , जौ आदि फसलें बड़े प

स्वर्णप्राशन

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               घर में जब बच्चे का जन्म होता है तो परिवार में खुशियाँ मनाई जाती है। माता-पिता बच्चे के बेहतर स्वास्थ्य के लिए और बीमारियों से बचाने के लिए कुछ प्राचीन संस्कार अपनाते है। ताकि बच्चे में रोग-प्रतिरोधक क्षमता का विकास हो सके। हिन्दु धर्म के विभिन्न संस्कारों में स्वर्ण प्राशन संस्कार भी किया जाता हैं। बच्चों के लिए आयुर्वेद में स्वर्ण प्राशन संस्कार बच्चों को बलवान, बुद्धिमान और स्वस्थ रखने के लिए किया जाता है। स्वर्ण प्राशन संस्कार सोना के साथ शहद, ब्रह्यमी, अश्वगंधा, गिलोय, शंखपुष्पी, वचा आदि जड़ी बूटियों से एक रसायन निर्माण किया जाता है। जिसका सेवन पुष्य नक्षत्र के दौरान कराया जाता है। स्वर्ण-प्राशन संस्कार से बच्चों की शारीरिक और मानसिक शक्ति में अच्छा सुधार होता है। इसके सेवन से इम्युनिटी बुस्ट होती है जो बच्चों में रोगों से लड़ने की क्षमता पैदा करती है। आयुर्वेद के क्षेत्र से जुड़े हमारे ऋषि मुनियों एवं आचार्यों ने हजारों वर्षों पूर्व वायरस और बैक्टीरिया जनित बीमारियों से लड़ने के लिए ऐसा रसायन निर्माण किया जिसे स्वर्ण प्राशन कहा जाता है। स्वर्ण-प्राशन का अर्थ होता है स