शंखपुष्पी
जैसा कि इस पौधे के नाम से ही पता चलता है कि इसके फूल शंख के रंग की तरह सफेद और आकृति में शंख जैसे दिखाई देते है, इसलिए इसको शंखपुष्पी कहते है। शंखपुष्पी एक बहुपयोगी जड़ी बूटी है। जो राजस्थान के रेतीले, कंकरीले और पत्थरीले क्षेत्रों में बहुतायत से पायी जाती है। खेतों में भी खरीफ की फसलों में खरपतवार के रूप में बहुत उगती है। यह जमीन पर फैलने वाला मुलायम और रोम वाला पौधा होता है। इसकी शाखाएं लम्बी और फैली हुई होती है। शंखपुष्पी के वैसे तो सफेद फूल ही होते है। लेकिन कुछ फूल गुलाबी झांयी और कुछ फूल बैंगनी झांयी वाले भी होते है। सूर्योदय के आस-पास इसके फूल खिलते है। जो सूर्योदय से दो घण्टे तक खिले रहते है। उसी समय इसकी पहचान करके वैद्य लोग या संग्रहकर्त्ता इसका कलेक्शन करते है। इसका संग्रह करने के लिए परिपक्व अवस्था अश्विन और कार्तिक, चैत्र और वैशाख महीने उत्तम माने गए है।
                     शंखपुष्पी मुख्यतः दिमाग से सम्बन्धित सभी रोगों
में काम आती है। स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए शंखपुष्पी का चूर्ण दूध और मिश्री के
साथ मिलाकर प्रातःकाल लिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि बच्चों को शंखपुष्पी का
सेवन नियमित कराने से उनका दिमाग तेज रहता है। एक बार पढ़ने के बाद बच्चें आसानी से
उसे भूलते नहीं है। आयुर्वेद के विभिन्न योगों में शंखपुष्पी का योगदान रहता है
जैसे ब्रह्य रसायन, अगस्तय हरितिका, द्विपंचमूलादिमृत, र्स्वणप्राशन आदि।    
                    आयुर्वेदिक औषधि बनाने
वाली कई कम्पनीयां शंखपुष्पी का सीरप बनाकर बाजार में बेचती है। परीक्षा के दिनों
में ये कम्पनियां इसका ज्यादा ही प्रचार करती है। वृद्धावस्था में याद्दाश्त कमजोर
होने की बीमारी अक्सर देखी जाती है। उसे एल्जाइमर कहते है। इस बीमारी का इलाज करने
के लिए आयुर्वेदिक औषधि का निमार्ण किया जाता है। जिसमें शंखपुष्पी, शतावरी, अश्वगंधा, गिलोय आदि का मिश्रण किया
जाता है। डिप्रेशन और मस्तिष्क से सम्बन्धित कई बीमारियों का इलाज शंखपुष्पी से
किया जाता है। उन्माद और पागलपन का इलाज भी शंखपुष्पी से किया जाता है। अनुभवी
वैद्य शंखपुष्पी के द्वारा हाई ब्लड प्रेशर को भी नियंत्रण में करते है। 
                     यह दिव्यवनौषधि पश्चिमी राजस्थान में बहुतायत से
पाई जाती है। कलेक्शन करने वाले किसान इसका संग्रह बड़ी मात्रा में करते है। वनौषधि
के व्यवसायी और दवा बनाने वाली कम्पनीयां उनसे खरीदकर ले जाते है। भारत की
प्रसिद्ध कम्पनी डाबर इण्डिया लि. ने बाड़मेर के कृषिविज्ञान केन्द्र से संपर्क
करके शंखपुष्पी के कृषिकरण और संग्रहण पर काफी काम किया। यहाँ के स्थानीय किसानों
से संपर्क करके अपनी कम्पनी के लिये शंखपुष्पी का माल खरीद रहे है। इसके अतिरिक्त
कई बड़ी कम्पनियां शंखपुष्पी खरीदने के लिए पश्चिमी राजस्थान के किसानों से संपर्क
करती है। 
                     पुराने जमाने में जब गुरूकुल में शिक्षा होती थी, उस समय गुरूजी
विधार्थियों को वनौषधियों का ज्ञान भी देते थे। उनकी पहचान करना, उनका संग्रहण करना और
किस-किस रोग में कैसे-कैसे काम में ली जाती है, उसका ज्ञान उनको देते थे। शंखपुष्पी का संग्रहण सूर्योदय से
पूर्व उनसे करवाते थे। उसको घोट पीसकर रस निकालकर दूध और मिश्री के साथ
विधार्थियों को पिलाते थे। इससे उनकी बु़द्ध प्रखर होती थी। शंखपुष्पी साथ-साथ के
गिलोय का सत्व, अपामार्ग की जड़, बिडं़ग के बीजों का चूर्ण, कुठ, वचा, शतावरी और छोटी हरड़ इन
सबको समान मात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर सुबह शाम तीन-तीन ग्राम दूध के साथ सेवन
कराते थे। ऐसा करने से उनकी याद्दाश्त तेज होती थी। बालों को घना, लम्बा और चमकदार बनाने के
लिये शंखपुष्पी के पंचाग को पीसकर बालों में लगाते है। शंखपुष्पी भृंगराज और आंवला
से निर्मित तेल बालों में लगाने से बाल स्वस्थ होते है। 
                     दक्षिण भारत में विष्णुकांता (कोयलबेल) को भी
शंखपुष्पी की जगह काम में लिया जाता है। उत्तर भारत में सफेद फूल वाली शंखपुष्पी
ज्यादा प्रचलन में है।

 
 
 
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