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Showing posts from August, 2023

इसबगोल

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                           इसबगोल एक बहुपयोगी औषधि है। पूरे विश्व में इसका उत्पादन भारत में ही सर्वाधिक होता है। भारत के अतिरिक्त पाकिस्तान व मिश्र में भी इसकी खेती होती है। भारतवर्ष में सबसे अधिक राजस्थान में इसकी पैदावार होती है। राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात , मध्यप्रदेश में भी कुछ जिलों में बोया जाता है। राजस्थान के जालौर , बाड़मेर , पाली , जोधपुर , नागौर , बीकानेर , सिरोही आदि जिलों में सबसे ज्यादा खेती होती है। कम उपजाऊ रेतीली जमीन और कम पानी में इसकी खेती संभव है। इसबगोल को अक्टूम्बर-नवम्बर में बोया जाता है व फरवरी-मार्च में इसकी फसल तैयार हो जाती है।           इसबगोल का 90 प्रतिशत उत्पादन राजस्थान के रेतीले जिलों में ही होता है। लेकिन इसकी मण्डी उंझा (गुजरात) है। उंझा में कई प्रोसेस हाऊस लगे हुए है। जो इसकी भूसी बनाने का कार्य करते है। उंझा से ही कई कम्पनियां लम्बे समय से घरेलू बाजार में विभिन्न नामों से मार्केटिंग करती है। साथ ही कई बड़ी-बड़ी कम्पनियां पूरे विश्व में निर्यात भी करती है।                     इसबगोल का उपयोग ज्यादातर पेट के रोगों में किया जाता है। बवासीर , पेटदर्

घटता खाद्यान्न बढ़ती चिंता

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            जलवायु परिवर्तन से बारिश की स्थिति में बदलाव आ रहा है। देश के तापमान में भी असमय में ही अधिक उतार-चढ़ाव आ रहा है। इसका सीधा प्रभाव कृषि पर पड़ता है। प्रमुख खाद्यान्न फसलें चावल और गेहूँ मौसम और बारिश पर निर्भर करती है। इनके बदलते ही खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी आ जाती है। जिससे खाद्य संकट बढ़ेगा।                जलवायु परिवर्तन के कारण दक्षिण भारत में भी उत्तरी भारत जैसे लू के थपेडे़ चलने लग गये है। जिसे हीटवेव जोन कहते है तथा बारिश का औसत भी कम हो रहा है। इसके साथ-साथ बारिश का पैटर्न भी तीव्र गति से बदल रहा है। दक्षिण भारत की प्रमुख खाद्यान्न फसल चावल का उत्पादन दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है। वैज्ञानिकों और किसानों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। इस समस्या से निपटने के लिए धान की ऐसी वैरायटी वैज्ञानिकों को बनानी होगी जो कम पानी और लू के थपेड़ों से भी पूरी पैदावार दे सके।           उत्तर भारत में जहाँ गेहूँ और चावल की बहुतायत से खेती होती हैं वहाँ के मौसम व औसत वर्षा का मिजाज भी कुछ बिगड़ा-बिगड़ा सा लगता है। इस वर्ष बिहार एवं उत्तरप्रदेश प्रांतो में जून-जुलाई में सूखा पड़ा अतः धान क

जय हो बाजरी की

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                 संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वर्ष 2023 को अन्तर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष के रूप में घोषित किया है। मोटे अनाजों में बाजरा सबसे अधिक पैदा होता है और खाया भी जाता है। बाजरा में भरपूर पौष्टिक तत्त्व होते है। राजस्थान में तो कई जिलो में ग्रामीणों द्वारा वर्ष पर्यन्त बाजरा ही मुख्य भोजन के रूप में खाया जाता है। बाजरी का फ्लेक्स बनाकर स्वादिष्ट पोहा भी बनाया जाता है। जो चावल के पोहे से भी ज्यादा पौष्टिक होता है। बाजरा ग्लूटेन मुक्त फाइबर होता है , जो डायबिटिज और हृदयरोगियों के लिए लाभदायक रहता है। संयोग है कि रेगिस्तान में जहाँ बाजरा होता है , वहाँ मूंग भी प्रचुर मात्रा में बोया जाता है। मूंग की दाल के साथ बाजरे का सोगरा खाने से शरीर की प्रोटीन की प्रतिदिन की आवश्यकता पूरी हो जाती है। बाजरी और मूंग की दाल खाने से मोटापा , डायबिटिज , हृदयरोग आदि दूर रहते है।                रेगिस्तान में दीपावली के पहले ही बाजरा और तिल की फसल पककर तैयार हो जाती है। घाणी से तिल का तेल निकलवाकर उस तेल को यहाँ के लोग उपयोग में लाते है। बाजरी का गर्म-गर्म सोगरा तिल के तेल में चूरकर गुड़ मिलाकर सर्दियों में

धरती माता की प्रसन्नता

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                 जन्म देने वाली माता और धरती माता के हमारे ऊपर इतने उपकार है कि इन दोनां के आशीर्वाद के कारण ही हम जिंदा है। हमारे ऊपर जितने ऋण हमें जन्म देने वाली माता और पालन-पोषण करने वाली धरती माता के है उनसे हम उऋण नहीं हो सकते हैं। लेकिन हमें सदैव इनके ऋण से उऋण होने के लिए ईमानदारी से प्रयास करते रहना चाहिए।                इनके ऋण उतारने के लिए हमें दोनों माताओं की मन से सेवा करनी होगी। इनकों सुंदर बनाने के लिए , स्वस्थ बनाने के लिए , प्रसन्न रखने के लिए सदैव कार्य करते रहना चाहिए। धरती माता के ऋण , जन्म देने वाली माँ से कुछ अधिक ही होते है। कुछ ऐसे कार्य है जो हम नियमित करते रहे तो हमारी धरती माता प्रसन्न रहेगी , स्वस्थ रहेगी एवं सदैव उसकी मुद्रा आशीर्वाद वाली रहेगी।           हमने कृषि का उत्पादन बढ़ाने के लिए अत्यधिक रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग किया। इनके दुष्प्रभाव से हमारी धरती माता घायल हो गयी। उसके शरीर में बड़े-बड़े घाव हो गये। भला ऐसी अवस्था में धरती माता हमारा पेट कैसे भरेगी ? हमें यह प्रण करना है कि सौ प्रतिशत जैविक खेती ही करेंगे। किसी भी प्रकार के

रेगिस्तान का जहाज : ऊंट

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                 राजस्थान सरकार ने जून 2014 में ऊंट को राज्य पशु घोषित किया है। इसको रेगिस्तान का जहाज भी कहा जाता है। ऊंटो की गिरती जनसंख्या चिंता का विषय है। ऊंटों की बड़े पैमाने पर कतलखाने में चोरी छुपे ले जाये जा रहे है। राजस्थान सरकार के पुलिस विभाग के ऑकड़ो से पता चलता है कि पिछले तीन वर्ष में ऊंटो की तस्करी के 76 मामले दर्ज किए गए , जिसमें 939 ऊंटों को वध के लिए बाहर ले जाया गया। राजस्थान सरकार ने इसकी तस्करी को रोकने के लिए 2015 में सख्त कानून बनाया था। जिसके अन्तर्गत 196 लोगों को गिफ्तार किया गया है।                22 जून को पूरे विश्व में वर्ल्ड कैमल डे मनाया जाता है। ऊंट अनुसंधान संस्थान बीकानेर में इस दिन कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते है। इसे देखने के लिए पूरे विश्व से पर्यटक आते है। ऊंटो से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की प्रतियोगितायें इसमें आयोजित की जाती है। ऊंटो की सजावट , उनके नाच , उनकी परेड , उनकी बाल कटिंग और विभिन्न प्रकार के करतबों की प्रतियोगितायें होती है। ऊंटो के संरक्षण एवं विकास के लिए वैज्ञानिक अपने-अपने रिसर्च पेपर पढ़ते है। सरकारी नीतियों का मूल्यांकन भी

रेगिस्तान में बारिश की विशेष कृपा

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              पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर , जालोर , जोधपुर एवं पाली जिले पूर्णतः रेगिस्तानी हैं। यहाँ सामान्य बारिश बहुत कम होती है। अधिकतर वर्षो में अनावृष्टि व अल्पवृष्टि के कारण अकाल का सामना करना पड़ता है। इस वर्ष चक्रवाती तूफान बिफरजॉय और मानसून की वजह से विगत दो महीनों (जून-जुलाई) में सबसे अधिक बारिश रेगिस्तान में हुई। उसमें भी जालोर में 217 प्रतिशत एवं बाड़मेर में 213 प्रतिशत अधिक बारिश हुई।      पश्चिमी राजस्थान में 31 जुलाई 2023 तक बारिश की तालिका मात्रा (मिली.)  साभार उपरोक्त आंकड़े राजस्थान पत्रिका 9 अगस्त 2023 से लिये गये।                जलवायु की दृष्टि से बाड़मेर का इलाका अति शुष्क प्रदेश में आता है। जहाँ मात्र 25 सेमी वर्षा होती हैं। लेकिन इस वर्ष मानसून में 437 मिमी बारिश हुई जो सामान्य बारिश से 213 प्रतिशत अधिक हुई। इसी प्रकार जालोर में सामान्य से 217 प्रतिशत जोधपुर में सामान्य से 123 प्रतिशत , जैसलमेर में सामान्य से 100 प्रतिशत एवं पाली में सामान्य से 161 प्रतिशत बारिश रिकॉर्ड की गई।                रेगिस्तान में वर्षा का लम्बे समय तक एवं ज्यादा

स्तनपान करने वाले शिशुओं को नहीं हुआ-आई फ्लू

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            राजकीय मथुरादास माथुर अस्पताल जोधपुर के शिशुरोग विशेषज्ञ डॉ हरिमोहन मीणा ने ओब्जरवेसन किया कि 0 से 3 वर्ष तक के स्तनपान करने वाले शिशुओं को आईफ्लू नजदीक भी नहीं फटका। जोधपुर शहर में 1 से 7 अगस्त तक विश्व स्तनपान सप्ताह मनाया गया। इस कार्यक्रम में डॉक्टरों ने आमजन को स्तनपान के प्रति जागरूक किया गया। कुछ भ्रांतियां एवं आधुनिक कल्चर के कारण माताएँ अपने शिशुओं को स्तनपान नहीं करवाती है। जिससे उन बच्चों की इम्यूनिटी कमजोर हो जाती हैं और कई प्रकार के संक्रामक रोग शिशु के ऊपर आक्रमण कर देते हैं।                0 से 3 वर्ष तक के शिशुओं का अध्ययन करने पर यह पाया गया कि जिन माताओं ने शिशु को स्तनपान कराया उसे कंजटिवाईटिस संक्रमण का असर नहीं हो पाया। उसी वर्ग के जिन बच्चों ने माताओं के कारण संक्रमण मिला , उनमें आईफ्लू के साथ-साथ निमोनिया के लक्षण भी दिखे। आईफ्लू के साथ निमोनिया का होना आम बात थी। ऐसे बच्चों का अध्ययन कर यह पुष्टि की जा सकती है कि कई बच्चों को केवल एक आँख में संक्रमण हुआ और दूसरी आँख बची रही। ऐसे छोटे बच्चे जो स्कूल नहीं जा रहे है और स्तनपान कर रहे है , उनकी इ

हरित रेगिस्तान

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            राजस्थान सरकार ने यह निर्णय लिया है कि प्रदेश को 20 प्रतिशत वन से आछादित करना होगा। इस हेतु इस वर्ष 2023-24 में पूरे प्रांत के 50 जिलों में 80 हजार हेक्टेयर में वृक्षारोपण करने का निर्णय लिया गया। जिसके लिए 5 करोड़ पौधे वन-विभाग की नर्सरियों से वितरित किए जा रहे हैं। इस महत्ती योजना को क्रियान्वित करने के लिए छः माह तक की आयु का पौधा 9 रू. प्रति पौधा और बारह माह का पौधा 15 रू. प्रति पौधा से दिए जा रहे हैं। जो लागत मूल्य से भी कम है। 10 पौधे तक व्यक्तिगत लेने वाले को मात्र 2 रू. प्रति पौधा उपलब्ध कराया जा रहा है। राजकीय उपक्रमों और गैर-सरकारी संगठनों को 50 हजार से 2 लाख पौधों के लेने पर 50 प्रतिशत तक छूट दी जायेगी एवं 2 लाख से अधिक पौधे लेने पर 75 प्रतिशत की छूट दी जायेगी। इतना ही नहीं पौधां का आर्डर और भुगतान ऑनलाइन करने की सुविधा दी गई हैं।                राज्य सरकार की ‘‘ट्री आउट साइड फोरेस्ट स्कीम‘‘ को सफल बनाने के लिए वन विभाग कमरकस कर तैयार खड़ा है। पर्यावरण को बेहतर बनाने , आम जनता को क्लाइमेट चैंज के प्रति जागरूक करने एवं जनमानस का जीवनस्तर सुधारने के ल

विकास की भेंट चढ़ता जंगल

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            एक तरफ राजस्थान की जनता कठिन प्रयास करके वन क्षेत्र को बढ़ाने के लिए सतत् वृक्षारोपण करती आ रही हैं। दूसरी तरफ विकास के नाम पर विगत पाँच सालों में 2,972 हेक्टेयर में पेड़-पौधों को नष्ट कर दिया गया है। प्रदेश के विकास के लिए विभिन्न कामों के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहीत की जाती है और उसमें से पेड़-पौधों को काट लिया जाता है। विशेषकर नए औद्योगिक क्षेत्र बनाने , वैध और अवैध खनन क्षेत्र बनाने , सड़कों का विकास , बढ़ता शहरीकरण , गाँव में बढ़ती आबादी वन-विभाग की जमीनों पर कृषि और आवासीय उद्देश्य के लिए अतिक्रमण बढ़ते जा रहे हैं और पेड़-पौधे लगाने की जमीन कम होती जा रही है। यह एक चिंता का विषय हैं।           कई देशों में वन-भूमि कम नहीं हो इसके लिए वर्टीकल विकास की आवधारणा की गयी। जैसे-रहने के लिए बहुमंजिला इमारतें , औद्योगिक उपयोग के लिए भी बहुमंजीली इमारत बनाने की अनुमति , खेती के लिए कम पानी और कम भूमि से नयी-नयी तकनीकी का उपयोग , सब्जियों की खेती में हाइड्रोपोनिक्स तकनीक का सहारा , पोलीहाऊस खेती , मल्टीस्टोरी सड़कें , केबल बस व केबल ट्रेन आदि कई कार्य कार्य किए जा रहे हैं। इन सबका उद्द

जैविक खेती में सफलता का सौपान

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                      जैविक खेती आजकल पूरे देश में ज्वलन्त मुद्दा हैं। हर जिले में कुछ न कुछ खेतों में कोई न कोई फसल की जैविक खेती हो रही हैं। कई   जैविक खेती के सर्टीफाइड खेत भी हैं। विभिन्न एजेन्सीज जैविक खेती को सर्टीफिकेशन का काम एपीडा के मार्ग दर्शन में कर रही हैं। मेरा यह मानना है कि जब तक पूरा का पूरा गांव ऑर्गेनिक खेती नहीं करता तब तक जैविक खेती का परिणाम नहीं मिलने वाला हैं।           किसानों व सरकार को चाहिये कि एक से अधिक गांवां के समूह व कलस्टर बना कर उन गांवों में पूर्ण रूप से जैविक खेती के लिये कार्यक्रम बनाया जाय। मान लो एक आदमी 100 बीघा में जैविक खेती कर रहा हैं और उसके चारों और गैर जैविक खेती हो रही हो तो जैविक खेती कठिन होगी। उसका सर्टीफिकेशन भी मुश्किल होगा। अतः गांव के गांव मिलकर यदि जैविक खेती का कठोर निर्णय लेते है तो उनको क्रियान्वयन सर्टीफिकेशन व मार्केटिंग आदि सबमें आसानी रहेगी। हमारे देश भारत में जैविक खेती का क्षेत्रफल तेज गति से बढ़ रहा है , उनका सर्टीफिकेशन भी बढ़ रहा है लेकिन पूरा गांव का गांव जैविक हो ऐसा देखने को नहीं मिलता हैं। झारखण्ड में 12 गांवों