विकास की भेंट चढ़ता जंगल
एक तरफ राजस्थान की जनता कठिन प्रयास करके वन क्षेत्र को बढ़ाने के लिए सतत् वृक्षारोपण करती आ रही हैं। दूसरी तरफ विकास के नाम पर विगत पाँच सालों में 2,972 हेक्टेयर में पेड़-पौधों को नष्ट कर दिया गया है। प्रदेश के विकास के लिए विभिन्न कामों के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहीत की जाती है और उसमें से पेड़-पौधों को काट लिया जाता है। विशेषकर नए औद्योगिक क्षेत्र बनाने, वैध और अवैध खनन क्षेत्र बनाने, सड़कों का विकास, बढ़ता शहरीकरण, गाँव में बढ़ती आबादी वन-विभाग की जमीनों पर कृषि और आवासीय उद्देश्य के लिए अतिक्रमण बढ़ते जा रहे हैं और पेड़-पौधे लगाने की जमीन कम होती जा रही है। यह एक चिंता का विषय हैं।
कई देशों में वन-भूमि कम नहीं हो इसके लिए वर्टीकल विकास की
आवधारणा की गयी। जैसे-रहने के लिए बहुमंजिला इमारतें, औद्योगिक उपयोग के लिए भी
बहुमंजीली इमारत बनाने की अनुमति, खेती के लिए कम पानी और कम भूमि से नयी-नयी तकनीकी का उपयोग, सब्जियों की खेती में
हाइड्रोपोनिक्स तकनीक का सहारा, पोलीहाऊस खेती, मल्टीस्टोरी सड़कें, केबल बस व केबल ट्रेन आदि कई कार्य कार्य किए जा रहे हैं।
इन सबका उद्देश्य यही है कि जंगल जो पृथ्वी के फेंफड़े होते है, वे सुरक्षित रहे और
सिकुड़े नहीं।
दुनिया की बढ़ती जनसंख्या एवं उस जनसंख्या के लिए भोजन कपड़ा
की व्यवस्था करना, रोजगार के साधन
उपलब्ध कराना आदि विभिन्न कार्यो के लिए वनों पर जैविक दबाव बढ़ता जा रहा है। जो
स्वाभाविक है। शोधकर्ताओं को अब यह रिसर्च करना होगा कि वनों को नष्ट किये बिना भी
उनका सस्टेनेबल उपयोग मनुष्यों, पशुधन एवं वन्यजीव को जीवित रखने के किस प्रकार किया जा
सकता हैं। ये तो सत्य है कि एक समय था जब भारत जंगलों से घिरा था। जीवनयापन का
एकमात्र संसाधन वन एवं वनों उपज ही था। वन को किसी प्रकार से क्षति नहीं पहुँचाई
जाती थी। ऐसे रिति-रिवाज भारतीय सभ्यता और संस्कृति में मौजूद थे। ओरण, गोचर, गोड फोरेस्ट, नाड़ी, तालाब इन्हीं के रूप है।
जो आज भी जीवित हैं। जंगल से इतने भोज्य पदार्थ मिल जाते थे जिनसे मनुष्य, पशु व वन्य जीवों का
जीवनयापन बड़ा आसानी से हो जाता था। उस समय तथाकथित विकास नहीं था और भारत सोने की
चिड़िया कहलाता था।
जैसे-जैसे जंगल घटता गया गरीबी बढ़ती गई। एक समय तो ऐसा आ
गया जब वृक्षारोपण पर ध्यान देना बंद कर दिया था। परिणामतः हमारे देश की गिनती
निर्धन देशों में होने लग गयी थी। इधर कई वर्षो से हमने वृक्षारोपण को गंभीरता से
लिया हैं। पर्यावरण की चिंता की है तब से हम आर्थिक रूप से काफी सशक्त हुए है। अभी
भी भारत में वृक्षारोपण की संभावनाएँ बहुत हैं। यदि हमारी इच्छा शक्ति हो तो हर
वर्ष 20-25 करोड़ पेड़ लगाकर
प्रदेश को और अधिक स्वस्थ और सम्पन्न बना सकते है। वृक्षों में अपार ताकत होती है।
अभी भी हमने पेड़ों के महत्त्व का सही मूल्यांकन नहीं किया है और हम इसे बिना सोचे
समझे बलि चढ़ा देते हैं। जब भी विकास के नाम पर पेड़ों की बलि दी जाये उसके पहले ही
एक पेड़ के बदले में कम से कम 20 पेड़ लगाने का नियम बनाया जाये तथा उसकी कड़ाई से पालना की
जाये। तब जाकर हम प्रदेश को पुनः हरा भरा बना सकेंगें।
राजस्थान में औसत वर्षा बढ़ रही है। यह अच्छा संकेत है।
अच्छी बरसात से वृक्षारोपण का प्रतिशत ज्यादा सफल होगा। वनक्षेत्र, ओरण, गोचर, सार्वजनिक जगहों एवं गॉड
फोरेस्ट में फलदार वृक्षों का रोपण करने की लम्बे समय की नीति विभागों को बनानी
चाहिये। इसमें जामुन, बेर, आंवला, गूंदा, गूंदी, पीलू, खेजड़ी, महुआ, शहतूत, खिरणी, फालसा, कैरूंदा आदि का
वृक्षारोपण व संरक्षण योजनाबद्ध रूप से हर गांव में किया जाना चाहिये।
आपने बहुत गंभीर ,सामयिक और ध्यान देने योग्य मुद्दा उठाया है । शहरीकरण के बढ़ते दबाव, बढ़ती जनसंख्या और तीव्र विकास की लालसा ने हमें हरियाली से वंचित कर दिया है । घर के चौबारे में आम-नीम के पेड़ होना गुजरे वक्त की बात हो गई है। छोटे से फ्लैट में बोनसाई का एक पौधा लगाकर हम हरियाली को महसूस करने का भ्रम पालने लगें हैं। ऐसे समय में जब हमारे वैज्ञानिक हमें बार-बार ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से चेता रहे हैं ,भयावह भविष्य का चेहरा दिखा रहे हैं, तब आपका यह लेख सभी जिम्मेदारों का दिल दहला देने के लिए काफी है जो पर्यावरण संरक्षण में जुटे हैं । प्रणाम
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