घटता खाद्यान्न बढ़ती चिंता
जलवायु परिवर्तन से बारिश की स्थिति में बदलाव आ रहा है। देश के तापमान में भी असमय में ही अधिक उतार-चढ़ाव आ रहा है। इसका सीधा प्रभाव कृषि पर पड़ता है। प्रमुख खाद्यान्न फसलें चावल और गेहूँ मौसम और बारिश पर निर्भर करती है। इनके बदलते ही खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी आ जाती है। जिससे खाद्य संकट बढ़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण दक्षिण भारत में भी
उत्तरी भारत जैसे लू के थपेडे़ चलने लग गये है। जिसे हीटवेव जोन कहते है तथा बारिश
का औसत भी कम हो रहा है। इसके साथ-साथ बारिश का पैटर्न भी तीव्र गति से बदल रहा
है। दक्षिण भारत की प्रमुख खाद्यान्न फसल चावल का उत्पादन दिन-प्रतिदिन घटता जा
रहा है। वैज्ञानिकों और किसानों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। इस समस्या से निपटने
के लिए धान की ऐसी वैरायटी वैज्ञानिकों को बनानी होगी जो कम पानी और लू के थपेड़ों
से भी पूरी पैदावार दे सके।
उत्तर भारत में जहाँ
गेहूँ और चावल की बहुतायत से खेती होती हैं वहाँ के मौसम व औसत वर्षा का मिजाज भी
कुछ बिगड़ा-बिगड़ा सा लगता है। इस वर्ष बिहार एवं उत्तरप्रदेश प्रांतो में जून-जुलाई
में सूखा पड़ा अतः धान की बुवाई प्रभावित हुई। पिछले वर्ष गेहूँ की फसल पकने के
पूर्व ही सर्दी समाप्त हो गई और गर्मीयाँ शुरू होने लग गई। गेहूँ में ठीक से दाना
नहीं बन पाया। फसल कमजोर हो गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि समय से पूर्व गर्मी ने
अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। जिससे गेहूँ व जौ की फसल 10-15 प्रतिशत कम हुई जो खतरे का सूचक है।
चावल की खेती के लिए प्रसिद्ध उत्तरी भारत के
प्रांत झारखण्ड, छत्तीसगढ़,
बिहार, पश्चिमी बंगाल में भी बारिश कम हुई। वहाँ पर चावल की फसल में 6-10 प्रतिशत की कमी आई। इस प्रकार के प्राकृतिक
जलवायु परिवर्तन से खाद्यान्न का उत्पादन तो घटता ही है, दलहन व तिलहन का उत्पादन घटने पर हमें इनका आयात बढ़ाना
पडे़गा। इससे हमारी आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है। अभी भी हम दालें व तिलहन आयात
करते हैं।
जलवायु परिवर्तन एक कटु सत्य है। इसको नकार
नहीं सकते। पूरी दुनिया के साथ-साथ हमारे देश पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है और आगे
भी पडे़गा। जिस तरह से हीटवेव बढ़ रहा है, कहीं-कहीं असमय अत्यधिक बरसात हो रही है, जिसका पानी बहकर नदियों द्वारा समुद्र में चला जाता है। अतः
समुद्र का जलस्तर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों का मत है कि ऐसी ही स्थिति रही
तो कुछ वर्षो बाद कम समुद्र तल ऊँचाई वाले राष्ट्र एवं महानगर समुद्र में समा
जायेंगे। जिसका असर पूरी दुनिया की सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में पड़ना तय है।
हमारे देश में 80 से 90 प्रतिशत बारिश मानसून पर आधारित होती है। कुल बारिश की मात्रा में तो विशेष
अंतर नहीं आया लेकिन बारिश ने अपना स्थान परिवर्तन कर लिया। इस वर्ष राजस्थान और
सौराष्ट्र में बारिश की मात्रा ज्यादा हो गई। जिसके लिए यहाँ के किसान तैयार नहीं
थे। पूरा पैटर्न बदल रहा है। ट्रापिकल क्षेत्रों में रेनफॉल की मात्रा बढ़ रही हैं।
कई जगह तो भारी बारिश हो रही है। जिससे यहाँ की फसलें अतिवृष्टि की मार सहन नहीं कर
पा रही है। परिणामतः उत्पादन घट रहा है।
बदलते जलवायु के परिपेक्ष में खाद्यान्नों का
उत्पादन घट रहा है जो चिंता का सूचक है। पूरे विश्व में कई जगह इसका प्रभाव पड़ रहा
है। जलवायु के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए पर्यावरण विशेषज्ञों को सभी देशों के
लिए गाइडलाईन बनानी चाहिए, ताकि हम सभी
जीवित रह सके। जलवायु परिवर्तन का सीधा असर वन, वन्यजीव, हार्टीकल्चर
क्रोप्स जैसे-फलों और सब्जियों की फसलों पर भी पड़ता है। इनका भी उत्पादन एवं
गुणवता प्रभावित होती है। अतः समन्वित कार्यक्रम बनाकर उसके ऊपर चलने की आवश्यकता
है। अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना और फोसिलफ्यूल का उपयोग कम करना, वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का उपयोग बढ़ाना,
ग्रीनहाऊस गैसेज का उत्सर्जन कम करना आदि तीव्र
गति से करने हांगे। तभी हमारा पर्यावरण सुरक्षित रहेगा, बारिश नियमित होगी व मौसम का मिजाज भी ठीक रहेगा।
जलवायु
परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, अनियमित बारिश व बदलता तापमान का पैटर्न,
सभी मनुष्य की गलतियों से ही हो रहा है। अगस्त 2023 के पहले व दूसरे सप्ताह में हिमाचल प्रदेश में
भंयकर बादल फटे। वहाँ पर सड़कों का विकास करने के लिये कई बड़ी-बड़ी सुरंगे बनायी गयी
व कई निर्माणधीन है। सड़कें अधिक चौड़ी बनायी जा रही है। पहाड़ो को अंधाधुंध काटा जा रहा है। बरसात के पानी का रिसाव शुरू
हो गया और भारी मात्रा में लैण्डस्लाइडिंग हुई। सड़कें नष्ट हो गयी। सैंकड़ों लोगां
की मृत्यु हो गयी व गांव के गांव बह गये। मानव को अपनी गलतियों से सबक सीखकर प्रकृति
के साथ जीना सीखना होगा। प्रकृति पर विजय पाने की दुष्चेष्टा नहीं करनी है।
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