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Showing posts from December, 2023

सेंधा नमक या आयोडीन नमक

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                      बचपन में हमारे घरों में साबुत नमक ही खरीद कर लाया जाता था। पीसा हुआ नमक नहीं लाते थे। चार आने में 20-20 सेर की दो बोरी नमक आ जाता था। नमक की डलियाँ अंदाज से दाल और कढ़ी में मिला दी जाती थी। जिस पानी से रोटी बनाने के लिए आटा साना जाता था उस पानी में भी नमक की डलियाँ अंदाज से घोल दी जाती थी। नमक डालने का अंदाज एकदम सटीक होता था। धीरे-धीरे नमक को घर में ही हाथ की चक्की से पीसा जाने लगा। एक साथ ज्यादा नमक पीसकर नहीं रखते थे। क्योंकि वह ढेलों में जम जाता था।                आजकल आयोडीन नमक का प्रचलन हो गया है। पिछले 40 वर्षों में आयोडीन युक्त नमक बहुत मंहगा हो गया है। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि आयोडीन नमक का दुष्प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। नपुंसकता , गर्भाशय की गाँठ , प्रोस्टेट में सूजन , किडनी फेल्यर , मधूमेह , ब्लड प्रेशर , शिशु डायबिटीज आदि बीमारियाँ हम आयोडिन नमक के रूप में खरीद कर ला रहे है। आज से 40 साल पूर्व इन बीमारियों का नाम भी नहीं था जिस समय आयोडीन युक्त नमक नहीं था।                 समुद्री लवण सोडियम क्लोराइड छ।ब्स् में कुछ अंश मैग्नीशियम क

अडूसा

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                      पश्चिमी राजस्थान के पंरपरागत चिकित्सा विज्ञान में एक औषधीय पौधे को बड़ी मात्रा में घर-घर में उपयोग में लिया जाता है। इस पौधे का नाम अडूसा या वसाका है। इस पौधे का उपयोग आयुर्वेद में भी बहुतायत से किया जाता है। खांसी , श्वसन संस्थान की बीमारी के साथ-साथ तपेदिक (टी.बी.) आदि बीमारियों में इसका उपयोग किया जाता है। इस पौधे की प्रमुख विशेषता यह है कि यह सदाबहार होता है। राजस्थान के पठारी और पथरीली जमीनों में यह बहुतायत में अपने आप उगता है। इसको कोई भी पशु नुकसान नहीं पंहुचाता है। यह एक झाड़ीनुमा बिना कांटे का सफेद फूल का पौधा होता है। इसकी दो प्रजातियाँ राजस्थान में पायी जाती है। एक छोटे पत्तों वाली , दूसरी बडे़ पत्तों वाली। दोनों के गुणधर्म समान होते है।                 आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में अडूसा का वर्णन किया गया है। श्वसन संस्थान से सम्बन्धित सभी बीमारियों का इलाज अडूसा की बनी हुई औषधियों से किया जाता है। घरेलू चिकित्सा पद्धति में भी ग्रामीण लोग अडूसा , काली मिर्च , सौंठ , कंटकारी , तुलसी आदि का काढ़ा बनाकर शहद के साथ सेवन करते है। इसकी मात्रा दो छोटे चम्मच

रेगिस्तान की आर्गेनिक गाजरः-एक सम्पूर्ण आहार

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                 गाजर का उपयोग फल , हलवा , मुरब्बा , सलाद , सब्जी , रस एवं अचार बनाकर हमारे घरों में सर्दी के मौसम में लम्बे समय से किया जाता है। पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर जिले में तिंवरी , मंथानिया , रामपुरा आदि गाँवों में गाजर की खेती आर्गेनिक तरीकों से बहुत मात्रा में की जाती है। इस क्षेत्र में सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। कई किसानों का अनुभव है कि सिंचाई के लिए जलस्तर नीचे जा रहा है परिणामतः जल की गुणवता में भी कमी आ रही है। इस क्षेत्र के करीब 70 गाँवों में गाजर की खेती अगेती व पिछेती यहाँ के किसान करते आ रहे है। नवरात्रि से ही गाजर की फसल आना शुरू हो जाती है जो होली तक आती रहती है।                 इन गाँवों में गाजर की उन्नत खेती करने का किसानों को पारम्परिक ज्ञान है। यहाँ की गाजर सुर्ख लाल , लम्बी और दिखनें में खूबसूरत , खाने में मीठी और स्वादिष्ट होती है। यहाँ के किसान बहुत अधिक मात्रा में गाजर की खेती प्रतिवर्ष करते है। यहाँ की गाजर का उत्पादन अहमदाबाद , बड़ौदा , बम्बई , बैंगलोर , चैन्नई , हैदराबाद , कलकत्ता जैसी दूर-दूर की मण्डियों में ट्रक

अपराजिता/विष्णुकांता की ब्लू टी

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                      विष्णुकांता की लता पूरे भारतवर्ष में पाई जाती है जिसके ऊपर नीले रंग के अति सुंदर पुष्प वर्ष पर्यन्त आते रहते है। इन फूलों को तोड़कर छाया में सुखाकर डिब्बों में बंद करके रख लिया जाता है। एक कप चाय बनाने के लिए गर्म पानी में 4-5 सूखे हुए फूलों को मसलकर ड़ाल देते है जिससे इस गर्म पानी का रंग नीला हो जाता है। इसी को गर्म-गर्म पीया जाता है। पूरे दक्षिण एशिया से इसके फूलों का निर्यात यूरोप और अमेरिकी देशों में ब्लू टी के नाम से किया जाता है।                 ब्लू टी हृदय रोग व मानसिक स्वास्थ्य में सुधार करती है। इसके साथ ही ब्लू टी कैंसर और डायबिटीज में भी फायदा करती है। ब्लू टी में एंटीऑक्सीडेंट विशेषकर एंथोसायनिन तत्व प्रचूर मात्रा में होते है। वैज्ञानिकों के अनुसार ब्लू टी से शरीर में सूजन की कमी आती है। आयुर्वेद के अनुसार ब्लू टी ठण्डक देने वाली होती है। पित्त प्रवृति के लोगों को इससे लाभ मिलता है। ब्लू टी का नियमित सेवन बुढ़ापे के लक्षणों को दूर रखता है। ब्लू टी का सेवन त्वचा को स्वस्थ रखता है तथा मस्तिष्क शांत रहता है। ब्लू टी का यूरोप में नियमित सेवन किया जाता है

पर्वत-जीवन का प्रमुख स्रोत

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                      हरियाणा , राजस्थान , मध्यप्रदेश , गुजरात , उत्तर प्रदेश आदि प्रांतों में अरावली की पर्वत शिखाएँ बहुतायत से फैली हुई है। यहाँ के पूरे भू-भाग में अरावली की गोद में आदिवासी जनजातियाँ बहुतायत से रहती है। राजस्थान के पाली , देसूरी , बालोतरा , बाड़मेर , जालोर , भीनमाल , भरतपुर , अलवर , सिरोही , उदयपुर , राजसंमद , नागौर आदि जिलों में अरावली की पर्वत श्रृंखलाएँ बहुतायत से स्थित है। वनवासी , आदिवासी लोगों का जीवन पहाड़ों पर ही निर्भर है।                कई वर्षो के बाद जब मैं इन जिलों में धूमने निकला तो यहाँ बड़े पहाड़ हुआ करते थे उनको जमीनी सत्तह से भी नीचें तक खोद ड़ाला है पिछले 40-50 वर्षो में इन कीमती पहाड़ों को वैधानिक एवं गैर वैधानिक तरीकों से खोद ड़ाला बड़ी-बड़ी मशीनें इस कार्य में दिन-रात लगी हुई है। ग्रेंनाइट और मार्बल जैसे मंहगें पत्थरों के लिए अरावली विश्व प्रसिद्व है। इन पत्थरों का उपयोग मंहगें भवन निर्माण में किया जा रहा है। भवन निर्माण , सड़क निर्माण आदि विभिन्न विकास के कार्यो को करने के लिये गिट्टी इन्हीं पहाड़ों से बनायी जा रही है।                 11 दिसम्बर को

ऑर्गेनिक सब्जी कददू (Pumpkin)

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                      हमारे गाँव में कददू की सब्जी नहीं खाई जाती थी। इसका मुख्य कारण इसकी पैदावार फसल के रूप में रेगिस्तानी क्षेत्र मे ंनहीं होती है। एक और यह प्रथा प्रचलन में है कि गाँवों में लोग गुरू बनाते समय गुरू के वचनानुसार कर्णंफूंकन के समय एक न एक वस्तु का उपयोग त्यागते है। गुरू के सामने यह प्रतिज्ञा करते है कि आज के बाद जीवन पर्यन्त इस वस्तु का सेवन नहीं करेंगे। ऐसी प्रथा स्त्री और पुरूषों में देखी गयी है लेकिन पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियाँ इस प्रकार की शपथ अवश्य लेती है। कददू (कोला , Pumpkin) सबसे अधिक त्यागने वाली वस्तु है। इसके साथ कई महिलाओं से पूछने पर पता चला कि वे अमरूद , केला आदि वस्तुओं का भी त्याग करती है। कई वर्षो पहले इनकी उपलब्धता मुश्किल से हो पाती थी अतः इनका ही त्याग किया जाता था। कई लोग गंगा-स्नान करने जाते समय भी एक न एक वस्तु का त्याग करते है।                 मेरे पिताजी रेल्वे में गार्ड थे। इसी सिलसिले में इनको कई जगहों पर ड्यूटी के रूप में जाना पड़ता था। इसी काल में उनका सम्पर्क विभिन्न साधु-सन्यासियों से रेलगाडी में होता था। जोगिया कपड़ों के प्रति उनमें कु

धरती माता के घाव भरो

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                          धरती माता हमें जीने के लिए समस्त आवश्यक वस्तुएँ निःशुल्क प्रदान करती आ रही है इसीलिये हमारे सनातन धर्म में धरती को माता का दर्जा दिया गया है। धरती से ही हमें भोजन , कपडे़ , आश्रय , दवाईयाँ तो मिलती ही है साथ ही विभिन्न प्रकार के खनिज , कार्बनिक पदार्थ , मित्रजीव , एवं पर्यावरण को शुद्ध रखने के लिए एवं वायुमण्डलीय गैसां के रख-रखाव में एक निस्पंदन प्रणाली दी है।           इतनी महत्त्वपूर्ण मृदा को बचाने के लिए एवं स्वस्थ रखने के लिए पूरे विश्व में पाँच दिसम्बर को ’’विश्व मृदा दिवस’’ मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को मिट्टी के महत्त्व के बारे में बताना है। ऐसा माना जाता है कि थाईलैण्ड के महाराजा स्वर्गीय एच.एम. भूमिबोल अदुल्यादेज ने अपने कार्यकाल में उपजाऊ मिट्टी के बचाव के लिए काफी काम किया था। महाराजा के इसी योगदान को देखते हुए हर वर्ष उनके जन्मदिवस 5 दिसम्बर को ’’विश्व मृदा दिवस’’ के रूप में मनाकर उन्हें सम्मानित किया गया।                     जिस तरह जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते ठीक उसी तरह मिट्टी का भी उतना ही महत्त्व है। भारत की 60

परंपरागत ज्ञान का मॉर्डन रिसर्च

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                            पूरी दुनिया का ध्यान पेड़-पौधों व जड़ी-बूटियों से अधिक से अधिक औषधि निर्माण की और जा रहा है। पेड़-पौधां व वनस्पतियों से बनी हुई औषधियाँ लोगों को बीमार होने से बचाती है। यदि बीमार हो भी जाये तो वनस्पति द्वारा बनी हुई औषधियाँ बिना किसी दुष्प्रभाव के व्यक्ति को स्वस्थ कर देती है। साथ-साथ इन औषधीयों का इतना प्रभाव होता है कि नियमित सेवन करने पर पुनः किसी प्रकार की बीमारी की पुनर्रावृति नहीं होती है।                विश्व स्वास्थ्य संगठन की विभिन्न रिर्पोटां में यह बताया गया है कि विश्व की 80 प्रतिशत जनसंख्या वनस्पतियों से बनने वाली औषधीयों पर ही निर्भर है। दुरस्त , वनक्षेत्रों , ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले कम पढे़-लिखे लोग तो अपने स्वास्थ्य को वनस्पतियों के प्रयोग से ही ठीक करते है। हर जाति समुदाय एवं कबीलों के पास हजारों वर्ष पुराने नुस्खें आज भी प्रचलित है। जिनके पास कोई अक्षर ज्ञान नहीं है उनके पास भी वनस्पतियों के औषधीय उपयोग का खजाना है। इसी खजानें के द्वारा ये लोग अपने-अपने परिवार का , अपने पालतू पशुओं का एवं अपनी फसलों का सटीक इलाज समय-समय पर करते रहते