परंपरागत ज्ञान का मॉर्डन रिसर्च

                  


   पूरी दुनिया का ध्यान पेड़-पौधों व जड़ी-बूटियों से अधिक से अधिक औषधि निर्माण की और जा रहा है। पेड़-पौधां व वनस्पतियों से बनी हुई औषधियाँ लोगों को बीमार होने से बचाती है। यदि बीमार हो भी जाये तो वनस्पति द्वारा बनी हुई औषधियाँ बिना किसी दुष्प्रभाव के व्यक्ति को स्वस्थ कर देती है। साथ-साथ इन औषधीयों का इतना प्रभाव होता है कि नियमित सेवन करने पर पुनः किसी प्रकार की बीमारी की पुनर्रावृति नहीं होती है।

            विश्व स्वास्थ्य संगठन की विभिन्न रिर्पोटां में यह बताया गया है कि विश्व की 80 प्रतिशत जनसंख्या वनस्पतियों से बनने वाली औषधीयों पर ही निर्भर है। दुरस्त, वनक्षेत्रों, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले कम पढे़-लिखे लोग तो अपने स्वास्थ्य को वनस्पतियों के प्रयोग से ही ठीक करते है। हर जाति समुदाय एवं कबीलों के पास हजारों वर्ष पुराने नुस्खें आज भी प्रचलित है। जिनके पास कोई अक्षर ज्ञान नहीं है उनके पास भी वनस्पतियों के औषधीय उपयोग का खजाना है। इसी खजानें के द्वारा ये लोग अपने-अपने परिवार का, अपने पालतू पशुओं का एवं अपनी फसलों का सटीक इलाज समय-समय पर करते रहते है। वानस्पतिक पदार्थों की सहायता से औषधीय निर्माण और उपचार एकदम निःशुल्क होता है। क्योंकि वे उनके आस-पास आसानी से मिल जाते है। साथ ही इनसे इलाज करना शत्-प्रतिशत सुरक्षित भी होता है। जिनका कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है।

            समय के बदलाव के साथ-साथ आयुर्वेद का विकास हुआ। ऋषिमुनियों ने विभिन्न शोध कार्य करके इस चिकित्सा विज्ञान की स्थापना की। यह चिकित्सा पद्धति भी प्राकृतिक पदार्थो पर ही आधारित है। यह चिकित्सा पद्धति अत्यंत सस्ती एवं सुरक्षित है। विभिन्न ऋषिमुनियों ने इस चिकित्सा पद्धति को क्लासिकल चिकित्सा पद्धति का रूप दिया जो हजारों वर्षो से प्रभावित है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का डंका आज पूरे विश्व में फैला हुआ है। पाश्चात्य देशों में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के प्रति रूझान बढ़ रहा है। पश्चिमी राष्ट्रों में आयुर्वेद की पढ़ाई बढ़-चढ़कर हो रही है। वहाँ के विधार्थी भारत में आकर भी आयुर्वेदिक युनिवर्सिटीज एवं महाविद्यालयों में एडमिशन लेकर पढ़ाई कर रहे है। आयुर्वेदिक औषधि निर्माण में अधिकतर भारतवर्ष में पैदा होने वाली जड़ी-बूटीयों का प्रयोग लिखा गया है।

            आधुनिक वानस्पतिक विज्ञान लम्बें समय से भारतीय वनस्पतियों के औषधीय प्रयोग पर नये-नये अनुसंधान कर रहा है। विभिन्न अनुसंधान संस्थानों में इन वनस्पतियों के औषधीय गुणों पर रिसर्च हो चुका है और आगे भी जारी है। इसके लिए भारत सरकार के कई संस्थान कार्य कर रहे है जिसमें लाखों वैज्ञानिक कार्यरत है। सीमैप लखनऊ, रिजनल रिसर्च लेबोरेटरी, जम्मू तवी और जोराहट, भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान भोपाल, एन.बी.आर.आई. लखनऊ, नेशनल न्यूट्रीशियन इंस्टीट्यूट, हैदराबाद सभी राज्यों के वन शोध संस्थान, सी.एस.आई.आर. के पूरे भारतवर्ष में कार्यरत संस्थान, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के पूरे देश में फैले हुए उपक्रम एवं हार्टीकल्चर रिसर्च सेन्टर इस विषय में निरन्तर शोध कार्य करके प्रकाशित कर रहे है। विभिन्न कृषि विश्व विद्यालयों द्वारा और कृषि महाविद्यालयों द्वारा जड़ी-बूटीयों का उत्पादन बढ़ाने के लिए इनकी कृषि तकनीक विकसित करके किसानों को प्रशिक्षण दिया जाता है। भारत सरकार के कई संस्थान जड़ी-बूटीयों के विकास एवं निर्यात को बढ़ाने के लिए कार्य कर रहे है। इसमें एपीडा एवं नेशनल मेडिशनल प्लान्ट बोर्ड अग्रणी संस्थान है। लखनऊ स्थित सीमैप एवं पूरे भारत में फैले इसके सेन्टर्स में भी निरन्तर शोध कार्य होते रहते है। उपरोक्त सभी अति आधुनिक संस्थानों में मॉडर्न विज्ञान पर आधारित नये-नये रिसर्च होते है।

            भारतीय आयुर्वेदिक कौसिंल एवं राष्ट्रीय आयुर्वेद शोध संस्थानों द्वारा भारत के प्रत्येक राज्य  में इनके केन्द्र है। आयुर्वेद के प्राचीन साहित्य का अनुवाद व नये सिरे से प्रकाशन करते रहते है। आयुर्वेद जगत के विद्वानों द्वारा आयुर्वेदिक शिक्षा को आगे बढ़ाने व शिक्षण संस्थानों का नियंत्रण करते है। अन्तर्राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थानों से आपसी सामन्जस्य करना व सेमीनार्स व संगोष्ठियों का आयोजन करते रहते है। जो सतत् विकास के लिये आवश्यक है।

            वनस्पतियों से औषधि निर्माण कर बीमारियों को दूर करने के लिए पेड़ों के जिनोम सिक्वेंसिंग जैसी अतिआधुनिक तकनीक को विकसित किया गया है। अभी-अभी आई.आई.एस.ई.आर., भोपाल के वैज्ञानिकों ने जामुन के पेड़ में नये-नये औषधीय गुणों की पहचान की गयी है। यह पाया गया है कि जामुन में एंटीऑक्सीडेंट, एंटीफंगल, एंटीवायरल गुण होते है जो कैंसर, अल्सर और डायबिटीज जैसी कई बीमारियों के इलाज में रामबाण साबित हो सकते है। आई.आई.एस.ई.आर. के बायोलॉजिकल साइसेंज विभाग के प्रोफेसर विनीत के. शर्मा ने बताया कि विश्व में पहली बार हमारी संस्थान में जिनोम सिक्वेंसिंग का कार्य हुआ है। इसकी मदद से यह पता चला है कि जामुन की कुल 1200 प्रजातियाँ है जिनमें 61,000 जीन्स पाये जाते है। जामुन के बीज में जम्बौली तत्त्व पाया गया है। जो एन्टीऑक्सीडेंट के रूप में काम करता है। इसके साथ ही जैम्बोली एंटीअल्सर, एंटीडायबिटिक और एंटीफंगल होता है। जामुन के जिनोम सिक्वेंसिंग के लिए एलूमिना टेनेक्स और नैनोपर तकनीक का उपयोग किया गया। इस संस्थान के वैज्ञानिकों ने इसके पहले गिलोय, आँवला, पीपल, बरगद, ऐलोवेरा और अदरक की भी जिनोम सिक्वेंसिंग कर चुके है।

            आधुनिक विज्ञान के पैरामीटर्स पर हमारी प्राचीन जड़ी-बूटीयों पर नये-नये रिसर्च करने से आधुनिक चिकित्सा  पद्धतियों में हमारे पौराणिक ज्ञान का डंका बज रहा है। इतना अधिक एडवांस रिसर्च होगा तभी हमारे परंपरागत ज्ञान का लाभ हर व्यक्ति तक पहुँच पायेगा।

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