पर्वत-जीवन का प्रमुख स्रोत

                


 हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश आदि प्रांतों में अरावली की पर्वत शिखाएँ बहुतायत से फैली हुई है। यहाँ के पूरे भू-भाग में अरावली की गोद में आदिवासी जनजातियाँ बहुतायत से रहती है। राजस्थान के पाली, देसूरी, बालोतरा, बाड़मेर, जालोर, भीनमाल, भरतपुर, अलवर, सिरोही, उदयपुर, राजसंमद, नागौर आदि जिलों में अरावली की पर्वत श्रृंखलाएँ बहुतायत से स्थित है। वनवासी, आदिवासी लोगों का जीवन पहाड़ों पर ही निर्भर है।

               कई वर्षो के बाद जब मैं इन जिलों में धूमने निकला तो यहाँ बड़े पहाड़ हुआ करते थे उनको जमीनी सत्तह से भी नीचें तक खोद ड़ाला है पिछले 40-50 वर्षो में इन कीमती पहाड़ों को वैधानिक एवं गैर वैधानिक तरीकों से खोद ड़ाला बड़ी-बड़ी मशीनें इस कार्य में दिन-रात लगी हुई है। ग्रेंनाइट और मार्बल जैसे मंहगें पत्थरों के लिए अरावली विश्व प्रसिद्व है। इन पत्थरों का उपयोग मंहगें भवन निर्माण में किया जा रहा है। भवन निर्माण, सड़क निर्माण आदि विभिन्न विकास के कार्यो को करने के लिये गिट्टी इन्हीं पहाड़ों से बनायी जा रही है।

                11 दिसम्बर को अन्तर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने सन् 2002 में घोषित किया था। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने यह बताया कि दुनिया की 15 प्रतिशत आबादी पर्वतों में रहती है। साथ ही विश्व की आधी से अधिक जैव-विविधता इन्हीं पहाड़ों में बची हुई है। आधी से अधिक मानवता को पीने का ताजा पानी इन्ही पर्वत श्रृंखलाओं से मिलता है। अतः इनका संरक्षण करना सतत् विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। अन्तर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य यह है कि लोगों में पर्वतों के महत्व को जानने के लिए जागरूकता पैदा करना और पहाड़ों के विकास में आने वाली बाधाओं को अवगत कराना। अन्तर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस पर लोगों में पर्वतीय पर्यटन उद्योग के द्वारा वैकल्पिक आजीविका के साधनों का विकास करना, इसके द्वारा गरीबी उन्मुलन करना, सामाजिक समावेश, जैव-विविधता का संरक्षण करना, प्राकृतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत को संरक्षित करना, स्थानीय शिल्प कला और उच्च मूल्य देने वाले उत्पादों को बढ़ावा देना है। पहाड़ी क्षेत्रों में पांरपारिक रूप से मनाये जाने वाले मेलों और तीर्थ स्थानों का बढ़ावा देना इसका उद्देश्य भी है। वन्य जीवों का प्राकृतिक आवास पहाड़ों में ही स्थित है।

                भारत के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी सबसे अधिक जैव-विविधता पायी जाती है। स्थानीय लोग अपनी चिकित्सा पद्वति आज भी उनके क्षेत्र में उगने वाली जड़ी-बूटीयों से ही करते है। ये जड़ी-बूटीयां इनको स्थानीय स्तर पर निशुल्क उपलब्ध हो जाती है तथा इनके पास पीढी दर पीढ़ी किए गए उपचार का भी समृद्व ज्ञान का खजाना है। यह पांरपारिक चिकित्सा पद्वति उनके लिए सबसे सस्ती, विश्वसनीय, हजारों वर्षो से अनूभूत व स्थानीय स्तर पर इसके गुणीजनों की उपलब्धता आदि है।

                इन वनों में निवास करने वाले वनवासियों की रोजी-रोटी का साधन यहाँ की वनौपज है। अमूल्य वनौषधियों का परिचय, संग्रहण काल, उपयोगी अंग व उनका प्रंसस्करण आदि का उनके पास ज्ञान होता है। पशुधन भी इनके रोजगार का साधन है। उनके पशुधन का जीवन पहाड़ी वनों पर आश्रित होता है। खाद्यान्न का उत्पादन पहाड़ी जिलों में बड़े पैमानें पर नहीं हो पाता है। लेकिन उनके उपयोग के लिए पर्याप्त बाजरा, मक्का, जंगली फल व सब्जियाँ, मोटे अनाज (मिलेट्स), चावल की स्थानीय वैरायटीयाँ आदि का उत्पादन करते है। अधिक मात्रा में उत्पादन होने पर वनवासी लोग इनकां शहरों तक भी भेजते है। वनवासी लोगों द्वारा उत्पादित सभी प्रोडेक्ट्स 100 प्रतिशत आर्गेनिक एवं देशी किस्मों के ही होते है। इनके प्रोडे़क्ट्स में स्वाद, पोषक तत्व, औषधीय गुण, प्राकृतिक रंग आदि नेचुरल होते है। जो स्वास्थ्य के लिए अत्यंत गुणकारी होते है।

               संयुक्त राष्ट्र महासभा का मानना है कि पर्वतीय जनजातीय लोगों द्वारा कीमती ट्युबर क्रोप्स का संग्रहण किया जाता है। जिसमें आलू, शंकरकंद, रतालू, लहसून, प्याज, सूरण, बण्ड़ा आदि की हर पहाड़ी क्षेत्रों में अलग-अलग जंगली वैरायटीयाँ अपने आप उत्पन्न होती है। इस प्रकार की सब्जियाँ खेतों में पैदा करना काफी मंहगा साबित होता है। एक-एक सब्जी की 10-10 वैरायटीयाँ वनों में स्वतः पैदा होती है। जिनका पूरा ज्ञान इन वनवासियों को होता है। रामायण काल में कई जगह यह वर्णन आया है कि भगवान श्री रामचन्द्र जी ने अपने वनवास काल में इन्हीं कंदमूलों का सेवन करके अपना समय व्यतीत किया था। वनवासी लोग भगवान राम को नियमित रूप से खाने वाले कंदमूल फलों को उन्हें अर्पण करते रहते थे। ऐसी उपयोगी पहाड़ों को विभिन्न प्रकार से संरक्षित करने का बीड़ा संयुक्त राष्ट्र सभा ने उठाया है। उनका मानना है कि पूरे विश्व के धरातल पर 27 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र फैला हुआ है। जिसका विभिन्न लोग विनाश करने में तुले हुए है। पर्वत का विनाश करने के कारण इससे होने वाले लाभ से पूरी मानवता वंचित हो रही है। मनुष्य इनका विनाश तो कर सकते है लेकिन किसी भी कीमत पर निर्माण नहीं कर सकता। अतः इसी बात पर ध्यान देना है इन पर्वतों का  विनाश कैसे रोका जाए?

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