हम सब स्वंय मौत के मुहँ में जा रहे है।
जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामां का पूरे विश्व के वैज्ञानिक पता लगाकर नीति-निर्धारिकों को संचेत करते रहते है। साथ ही जनसामान्य में भी इसके प्रति जागरूकता ला रहे है। उनका मानना है कि जलवायु परिवर्तन से विभिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते है। साथ ही तनाव, एन्जायटी, हदयघात व मानसिक विकार भी तेजी से बढ़ रहे है। 1991 से 2018 तक के शोध से वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि दुनिया भर में गर्मी से होने वाली 37 प्रतिशत मौंतो का कारण मनुष्य के स्वयं के द्वारा किया गया जलवायु परिवर्तन रहा है। दो दर्शकों में 65 वर्ष से अधिक उम्र वालों की गर्मी से सम्बन्धित मौंतों में 70 प्रतिशत की वृद्वि हुई है।
जलवायु परिवर्तन को रोकनें और विश्व के तापमान
में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक
सीमित करने का मनुष्य के पास अभी भी अवसर है। इसके लिए जीवाश्म ईधन जैसे-पैट्रोल,
ड़ीजल, कोयला आदि का प्रयोग कम करना होगा। इसकी जगह पर सबकों मिलकर ऊर्जा के वैकल्पिक
संसाधनों का उपयोग जैसे-सौर ऊर्जा आदि का प्रयोग बढ़ाना होगा। इन वैकल्पिक ऊर्जा के
संसाधनों मे ंतीव्र गति से निवेश करना होगा। वैज्ञानिकों का मत है कि 2030 तक जलवायु परिवर्तन से जो प्रत्यक्ष नुकसान
स्वास्थ्य के क्षेत्र में होगा, वह प्रतिवर्ष 2 से 4 अरब डॉलर तक होने का अनुमान है।
विश्व के 3.6 अरब लोग आज भी जलवायु परिवर्तन के प्रति असंवेदनशील
क्षेत्र में रहते है। यह एक खतरनाक स्थिति है। पूरे विश्व कें 30 लाख से अधिक डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों ने
समय-समय पर जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों के प्रति सजग होने की चेतावनी देते
रहते है तथा इस समस्या से तत्काल निपटने के लिए कार्यवाही करने की अपील करते रहते
है। दुनिया भर में लाखों मनुष्यों के जीवन को बचाने के लिए जीवाश्म ईधन के उपयोग
को समाप्त करने की गुहार लगाते रहते है।
हमारा देश विकासशील देश है। जलवायु परिवर्तन और
ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के लिए विश्व के सारे देश समय-समय पर सेमिनार,
मीटिंग और वर्कशाप करते रहते है। उनमें इस विषय
पर गंभीर चिंता व्यक्त की जाती रही है। लगभगः यही बात खुलकर सामने आती है कि
ग्लोबल वार्मिंग में ज्यादातर भागीदारी विकसित राष्ट्रों की है। विकासशील
राष्ट्रों की आर्थिक क्षमता अधिक प्रदूषण फैलानें की है ही नहीं । जिसके पास
ज्यादा धन और संसाधन होते है वही राष्ट्र ज्यादा प्रदूषण फैलाता है। उन मिटिंगों
मे ंयह भी निर्णय लिया जाता है कि विकसित राष्ट्र ,विकासशील देशों को ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए
आर्थिक व तकनीकी सहयोग करेगा। इस सहयोग राशि से विकसित राष्ट्र अपने यहाँ ऊर्जा के
वैकल्पिक संसाधनों का विकास करके जीवाश्म ईधन के उपयोग को कम करेगा। यह बात केवल
मीटिंगों तक ही सीमित रह जाती है। जितना धन इस पुनीत कार्य के लिए खर्च किया जाना
चाहिए उतना खर्च नहीं हां पा रहा है।
पूरे
विश्व में जो अपनी धाक व दादागिरी रखने वाले राष्ट्र है, वे ही ज्यादा नुकसान वातावरण में कर रहे है। उसका खामियाजा
विकासशील राष्ट्रों को भुगतना पड़ रहा है। जितने भी कारखानें जो पर्यावरण के लिए
खतरनाक होते है उनकों सम्पन्न राष्ट्रों में लगाने की अनुमति नहीं होती है। वे लोग
इस प्रकार के कारखानें विकासशील राष्ट्रों में स्थापित करते है। अमेरिकनस के
द्वारा भारत में युनियन कार्बाइड का कारखाना भोपाल में लगाया गया। जिसका परिणाम हम
सभी जानते है। लाखों लोग इसकी दुर्घटना में मौंत के मुँह में समा गये थें। आज भी
भोपाल गैस त्रासदी का नाम सुनते ही हमारें रौगटें खडे़ हो जाते है। यह तो एक
उदाहरण मात्र है। न जाने कितने ही प्रदूषण फैलाने वाले कारखानें विकसित राष्ट्रांं
द्वारा विकासशील राष्ट्रों में स्थापित किये जाते है। उन देशों के नागरिकों के
जीवन के साथ तो खिलवाड़ करते ही है साथ ही पर्यावरण को भी क्षतिग्रस्त करते हैं।
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