संयुक्त परिवार में सबका भला
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 15 मई को प्र्रतिवर्ष इंटरनेशनल डे ऑफ फेमिलीज अर्थात् संयुक्त परिवार दिवस मनाया जाता है। परिवार ही किसी व्यक्ति की पहचान होता है। उसके बिना हर व्यक्ति अधूरा माना जाता है। व्यक्ति जीवन में कितनी तरक्की कर लें यदि परिवार का साथ और अपनों का अपनापन नहीं मिलें तो उन्हें बहुत तनाव, दुःख, उदासी और अकेलेपन का जीवन बिताना पड़ता है। भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार अनादिकाल से चला आ रहा है। धीरे-धीरे संयुक्त परिवारों की संख्या कम होती जा रही है और एकल परिवार बढ़ रहे है। जिसके दुष्परिणाम सब झेल रहे है। संयुक्त परिवार में रहने, इस भावना को समझाने और परिवारों को टूटने से बचाने के लिये ही हर वर्ष संयुक्त परिवार दिवस मनाया जाता है।
जिन बच्चों के माँ-बाप
दोनों नौकरी करते है उनके बच्चे संयुक्त परिवार में ही दादा-दादी और चाचा-चाची के
साथ रहकर सही तरीके से पल सकते है। अतः कामकाजी कपल्स के लिये तो संयुक्त परिवार
ही उत्तम है। संयुक्त परिवार में सोशल सिक्यूरिटी रहती है। किसी भी आर्थिक या शारीरिक
मुश्किल के समय संयुक्त परिवार का महत्त्व मालूम होता है। बुर्जुग लोग, छोटे बच्चे और विधवा
महिलाओं के लिये संयुक्त परिवार में रहना ही लाभप्रद है। संयुक्त परिवार में काम
करने ही जिम्मेदारी सभी सदस्यों में बाँट दी जाती है। अपने-अपने हिस्से का हर
सदस्य अपना काम आसानी से कर लेता है। त्यौहार, पूजा,
अनुष्ठान, बर्थडे पार्टी, शादी की सालगिरह की
पार्टी आदि फंक्शनों को परिवार के साथ मनाने की इच्छा सबके मन में होती है। इसमें
दादा-दादी से लेकर छोटे बच्चे तक सभी आनन्द लेते है। बच्चों को माता-पिता के
रिश्ते के अलावा परिवार में जो अन्य रिश्ते होते है उनके बारे में भी उनकी भूमिका
जानने में सहायता मिलती है।
संयुक्त परिवार में
आर्थिक परेशानियाँ नहीं आती है। सभी सदस्य घर खर्च चलाने में अपना-अपना सहयोग देते
है। यदि कोई बड़ा खर्च आ जाये या किसी की नौकरी छूट जाये ऐसी स्थिति में एक दूसरे
को संभाल लेते है। संयुक्त परिवार में दादा-दादी, चाचा-चाची और चचेरे भाई-बहनों का अधिक प्यार
मिलता है। अतः बच्चे ज्यादा परिपक्व और समझदार निकलते है। संयुक्त परिवार में हर
सदस्य को अपनी जिम्मेदारियों का अहसास होता है। कार्य को सामूहिक रूप से करने की
भावना के कारण सभी कार्य हल्के हो जाते है। इस भागदौड़ की जिंदगी में कोई किसी की
परवाह नहीं करता है। साथ ही काम को अपने ऊपर लेने की बजाय दूसरों पर थोंपने का
प्रयास करता है। लेकिन संयुक्त परिवार प्रथा में एक-दूसरे की परवाह करना और काम को
बाँटकर करना सीखता है, जो एकल परिवार
में कभी नहीं सीख सकते। बुर्जुगों के अनुभव संयुक्त परिवार में ही मिल सकते है।
क्योंकि संयुक्त परिवार में तीन-चार पीढ़ीयाँ एक ही छत के नीचे रहती है।
संयुक्त परिवार में सभी
सदस्य मानसिक रूप से परिपक्व होते है। सामाजिक और आर्थिक जिम्मेवारी किसी एक
व्यक्ति की नहीं समझी जाती है। लेकिन एकल परिवार में सभी जिम्मेवारियाँ एक ही
व्यक्ति पर आ जाती है। अतः एकल परिवार में मेंटल हेल्थ की समस्याएँ पैदा होती है।
संयुक्त परिवार में बच्चों का बचपन ज्यादातर अपने दादा-दादी के इर्द-गिर्द ही
बीतता है। माता-पिता अपने बच्चों के प्रति पहले से ही आश्वस्त रहते है। एकल परिवार
में माता-पिता की गैर मौजूदगी में बच्चों की परवरिश एक बड़ी समस्या है। बच्चों के
घर में अकेले रहने से उन्हें मानसिक रूप से अकेलेपन का सामना करना पड़ता है।
संयुक्त परिवार में एक-दूसरे का आदर करना और दूसरों का सम्मान करना अच्छी तरह से
जानते है। लेकिन एकल परिवार में रहने वाले बच्चे इन गुणों से दूर हो जाते है।
संयुक्त परिवार में अपने से बड़ों के जीवन से शिक्षा मिलती है। दादा-दादी अपने जीवन
की कहानियाँ सुनाते रहते है। इसके बच्चों में जीवन में संघर्ष करने की आदत पड़ती
है। संयुक्त परिवार में लोग ज्यादा सामाजिक होते है।
एक दूसरे की आदतों और जरूरतों से समझौता करने में भी अलग ही
मजा होता है। संयुक्त परिवार में कमजोर, बुजुर्ग, बीमार, नवजात, दिव्यांग और जरूरतमंद सदस्यों को सुरक्षा मिलती है। कई बार
दुर्घटना और आपदा जैसी परिस्थिति में एकल परिवार को भी संयुक्त परिवार की आवश्यकता
होती है। संयुक्त परिवार में हर दिन त्यौहार होता है। सदा ही परिवार में रौनक, शोरगुल गर्मजोशी और प्यार
का आलम रहता है। लेकिन एकल परिवार में यह सब देखने को नहीं मिलता। संयुक्त परिवार
में सभी सदस्य एक बड़ी टीम के रूप में काम करते है अतः बड़ा से बड़ा काम भी भार नहीं
लगता और किसी भी सदस्य को किसी प्रकार का तनाव नहीं रहता।
ढेर सारे लाभ है संयुक्त परिवार के। लेकिन उसके
बाद भी कई लोग आजाद रहने के लिये इस प्रथा से अलग होकर अलग रहते है। आजकल एकल
परिवार में रहने के कारण लोग बहुत दुःखी है। विकसित व पश्चिमी राष्ट्रों में
संयुक्त परिवार पहले ही टूटे, इसके दुष्परिणाम भी उनको पहले मिले। आज वे पुनः भारत की
संयुक्त परिवार प्रथा का सामाजिक अध्ययन करने के लिये यहाँ आते है। लेकिन हमारे
देश में भी संयुक्त परिवार प्रथा चरमरा गई है। शहरों में और गाँवों में कहीं-कहीं
संयुक्त परिवार देखने को मिलते है। संयुक्त परिवार टूटने का बुरा असर बुर्जुगों और
बच्चों पर तो पड़ता ही है साथ ही वह माता-पिता भी कम दुःखी नहीं है। इस व्यवस्था को
पुनः जागृत व जीवित करने में लम्बा समय लगेगा।
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