आभूषणों का वैज्ञानिक महत्त्व

           


     भारतीय संस्कृति में महिलाओं और पुरूषों के लिये अलग-अलग आभूषण धारण करने की प्रथा रही है। सोना, चाँदी व हीरें जवाहरात के आभूषण कलात्मक तरीकों से बनाये जाते है। आदिवासी व वनवासी जातियाँ भी विभिन्न प्रकार के आभूषण बनाकर धारण करते है। आदिवासी लोग समुद्री जीव, वन्यजीव व वनसम्पदा से कई आकर्षक वस्तुओं को इकट्ठा करके आभूषण बनाकर धारण करते है।

        वैसे तो स्त्री-पुरूष दोनों आभूषण पहनते है लेकिन ये आभूषण स्त्री की सुन्दरता में चार चाँद लगा देते है। शरीर के सभी अंगों में आभूषण पहनने के वैज्ञानिक कारण है। भारत का विज्ञान स्वास्थ्य और प्रसन्नता की धुरी के ईद गिर्द ही घूमता है। नाक, कान, गला, हाथ, सिर, पैर, कमर आदि में पहने जाने वाले सभी गहनों का स्वास्थ्य के साथ गहरा संबंध है।

        स्त्री और पुरूष दोनों एक दूसरे के पूरक तो है लेकिन मन व तन दोनों में अंतर होता है। पुरूषों की तुलना में स्त्री अधिक संवेदनशील होती है। बाहरी स्वरूप के अनुसार भी उन दोनों की प्रकृति अलग-अलग होती है। उनमें हार्मोन्स का उतार-चढ़ाव भी अलग-अलग प्रभाव डालता है। इसी उतार-चढ़ाव को ध्यान में रखते हुये हमारे ऋषि मुनियों ने कुछ ऐसे साधन बनाये है जिनमें आभूषणों का मुख्य रोल होता है। सोने के आभूषण गर्म और चाँदी के आभूषण ठण्डा असर करते है। अतः कमर के नीचे चांदी व कमर के ऊपर सोने के गहनें पहने जाते है। इस नियम से शरीर में सर्दी  और गर्मी का सन्तुलन बना रहता है।

                     कलाई में चुड़ियाँ पहनने से हाथों में रक्तसंचार बढ़ता है तथा घर्षण ऊर्जा पैदा करता है जो शरीर की थकान को मिटाता है। हाथ में गहने पहनने से श्वांस रोग एवं हृदय रोग की संभावना कम होती है। मानसिक संतुलन बना रहता है। ऐसा माना जाता है कि लाल और हरे रंग की चूडियाँ अधिक प्रभावशाली होती है।

                     महिलाएँ पैरां के बीच की तीन अंगुलियों में बिछिया पहनती है। यह केवल साज श्रृंगार की वस्तु नहीं है अपितु स्वस्थ शरीर का भी कारण है। बिछिया पहनने से महिलाओं का हार्मोनल सिस्टम सही रहता है एवं थायराइड की संभावना कम हो जाती है। बिछिया पहनने से एक्यूप्रेशर का काम करती है। वैसे शरीर के निचले अंगों के नाड़ी संस्थान और मांसपेशियाँ सफल रहती है। बिछिया एक्यूप्रेशर बनाती है जो औरतों की गर्भधारण क्षमता को स्वस्थ रखती है। मछली के आकार की बिछिया सबसे प्रभावशाली मानी जाती है।

                    पैरां में पायल पहनने से पैरों से निकलने वाली शारीरिक विद्युत ऊर्जा की शरीर में संरक्षित रखती है। वास्तुशास्त्र के अनुसार पायल की झनक नेगेटिव ऊर्जा को दूर भगाती है। पायल पहनने से पेट और निचले अंगों में फेट को बढ़ने से रोकती है। चाँदी की पायल पैरां से घर्षण करके हड्डियाँ मजबूत करती है और महिला की इच्छा शक्ति मजबूत बनती है। यही वजह है कि महिलायें अपने स्वास्थ्य की चिंता किये बगैर पूरी लग्न से परिवार के कामों में जुटी रहती है। पैरां में सदैव चाँदी की पायल ही पहनी जाती है। सोने की पायल शरीर की गर्मी का संतुलन खराब करके रोग उत्पन्न करती है।

        कमर के नीचे सोने के गहने नहीं पहने जाते है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सोना भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का प्रिय धातु है। इनको पैर में पहनने से लक्ष्मी और विष्णु रूष्ठ हो जाते है। परिणामतः आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ सकता है एवं घर की सुख शांति नष्ट हो सकती है। माना जाता है कि सोने से बने आभूषण शरीर में गर्मी बढ़ाते है और चाँदी के बने आभूषण शरीर में शीतलता बढ़ाते है। कमर के ऊपर सोने के गहने और कमर के नीचे चाँदी के गहने पहनने से शरीर का तापमान संतुलित बना रहता है।

        राजस्थान में आभूषण पहनने का रिवाज बहुत अधिक है। गाँवां में महिलाओं के अलग-अलग समुदाय व जातियों में जैसे अलग-अलग कपडे़ पहनने का रिवाज है वैसे ही गहने भी जातियों और समुदाय के अनुसार अलग-अलग डिजाईनों के पहने जाते है। गहनों से लदा रहना यहाँ कि महिलाओं को रूचिकर लगता है। मेले, उत्सव, शादी-विवाह आदि सामूहिक कार्यक्रमों में तो महिलाओं में गहनें पहनने की होड लगी रहती है। गहने ही उनकी सम्पन्नता की निशानी होती है। राजस्थान की जातियाँ जैसेः-जाट, राजपूत, विश्नोई, देवासी (रेबारी), आँजणा पटेल, लुहार, गुर्जर आदि जातियों में आज भी अधिक से अधिक गहनें पहनने की होड़ लगी रहती है। विदेशी पर्यटक यहाँ कि गहनों से लदी हुई महिलाओं को देखकर आश्चर्य करते है। यहाँ की तुलना में उनके यहाँ की महिलायें तो नाममात्र का गहना भी नहीं पहनती।

                    कान छिदवाना और उनमें तरह-तरह के गहनें पहनना स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उत्तम माना गया है। कर्ण छेदन बचपन में ही कर दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि कर्ण छेदन से विभिन्न प्रकार की व्याधियाँ दूर होती है। श्रवण शक्ति बढ़ती है एवं बचपन की शारीरिक व्याधियों से रक्षा होती है। गले में भारी भरकम हार और मालाएँ धारण करने से हृदय और फेफड़ों की बीमारियाँ दूर रहती है। माथे में बोर-टीका और रखड़़ी पहनने से एकाग्रता बनी रहती है। कई जातियों में एक-एक सेर के चाँदी के कडे़ पैरो में पहने जाते है उन्हें शरीर में असंतुलन की बीमारी कभी नहीं होती। कई कामगार जातियों में कलाई में तो चाँदी की चूडियाँ पहनी जाती ही है साथ ही कोहनी से ऊपर कंधे तक दोनों हाथों में भारी भरकम चूड़ा पहना जाता है। यह चूड़ा महिलाओं की आत्मसुरक्षा में योगदान देता है। कमर में भारी भरकम चाँदी का कमरबंद पहना जाता है। जिसे कंदोरा कहते है। यह भी काफी वजनदार होता है। हाथों के ऊपर हथफूल और बाजू के ऊपर बाजूबंद दोनों हाथों में बडे़ शौक से महिलायें पहनती है। ये गहने उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार सोना या चाँदी के होते है। नाक में नथ, कान में कर्णफूल और गले में कंठी सभी महिलायें अपनी-अपनी जाति के अनुसार डिजाईनों में बनाकर नियमित पहनती है।

                    हर महिला व पुरूष के गले में चाँदी या सोने का देवी-देवताओं की तस्वीर वाला भारी गहना पहना जाता है। जिसे फूल कहते है। उस पर नागदेवता, देवी का त्रिशूल, हनुमान जी की गदा, देवी चित्र या मामाजी देवता का घोड़े पर सवार चित्र होता है। बच्चों के गले में भी छोटी साइज का फूल जरूर पहनाते है।

                    गहनें पहनने का वैज्ञानिक कारण तो विद्वानों को पता होता है। लेकिन गाँव की भोली-भाली महिलायें भी गहनें से अत्यधिक लगाव रखती है। अविवाहित लड़कियों और विवाहित महिलाओं मे गहनें अलग-अलग प्रकार के होते है। वही विधवाओं के लिये भी अलग प्रकार के गहनें पहननें का रिवाज होता है।

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