विश्व में तेजी से बढ़ रहे है बूढ़े देश

              


  विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जापान में 100 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों की संख्या इस वर्ष 92000 से ज्यादा हो गई है। वैसे तो पूरी दुनिया में ही बूढ़े लोगों की बढ़ती संख्या सबके लिये चिंता बढ़ा रही है लेकिन जापान में यह एक बड़ी समस्या बनती जा रही है।

        रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि विश्व के अन्य देश बुर्जुग लोगों की बढ़ती जनसंख्या जैसी चुनौती का सामना आने वाले तीस वर्ष बाद करेंगें लेकिन यह समस्या यूरोप में आज भी दरवाजे पर खड़ी है। अनुमान लगाया जा रहा है कि यूरोप में 65 वर्ष से अधिक के लोगों की संख्या 15 वर्ष से कम उम्र के लोगों की संख्या अगले वर्ष अधिक होगी। स्वास्थ्यप्रद खानपान, समुचित खेल, व्यायाम और अच्छी आदतें जीवन को स्वस्थ और दीर्घायु बनाती है।

        यूरोप में बुर्जुगों की आयु तो बढ़ रही है, उसके अनुपात में बच्चों की पैदाइश  घट रही है। यह एक चिंता का विषय है। यूरोप में आबादी का अनुपात यह मांग करता है कि बूढ़ी होती आबादी का असर कम किया जाये। विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देश के अनुसार बूढे़ लोगों में खेलकूद, सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़ावा देना, कम से कम सप्ताह में 150 मिनट तक व्यायाम और शारीरिक गतिविधियाँ करने की सलाह दी जाती है।

        विश्व स्वास्थ्य संगठन का तो यहाँ तक मानना है कि भारत आज तो युवाओं का देश है लेकिन तीन दशकों के बाद यहाँ भी बुर्जुगां की संख्या तेजी से बढ़ेगी। जिन देशों में बुर्जुगों की देखभाल का उचित तंत्र नहीं है वहाँ यह समस्या और गंभीर रूप से सामने आयेगी। परोक्ष रूप से वे यह कहना चाहते है कि भारत में बुर्जुग लोगों के लिये समुचित व्यवस्थाएँ नहीं है। लेकिन यह उनकी कल्पना मात्र है।

        भारत की सामाजिक व्यवस्था इतनी सुदृढ़ है कि उसमें हमारा कभी देश बूढ़ों का देश न बना है, न बनेगा। हमारी संस्कृति में उम्र को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है। 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य आश्रम 26 से 50 वर्ष तक गृहस्थ आश्रम, 51 से 75 वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम एवं 75 वर्ष के बाद सन्यास आश्रम। ऐसी परिकल्पना की गई है इसमें मनुष्य को कभी भी बुढ़ापे का दुख होता ही नहीं है। हर आश्रम के लोगों के दायित्वों का बारीकी से विभाजन और वर्णन किया गया है। 25 वर्ष तक बचपन, विद्यार्थी जीवन और शिक्षा के क्षेत्र में सभी विद्याओं का विकास करना ही मुख्य उद्देश्य होता है। शारीरिक और मानसिक रूप से सभी तैयारियाँ 25 वर्ष की आयु आते-आते पूरी कर ली जाती है। जीवनपयोगी नैतिक शिक्षा भी कूट-कूट कर भर दी जाती है। 25 वर्ष के बाद शुरू होता है गृहस्थ जीवन। गृहस्थ आश्रम का दायित्व ब्रह्मचर्य आश्रम के साथ-साथ वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम के लोगों का पूरा-पूरा ध्यान रखना। इसकी पूरी गाइडलाईन सनातन शास्त्रों में बनी हुई है। 50 वर्ष पूरे होते होते व्यक्ति समस्त दायित्वों को पूरा करके वानप्रस्थ की और बढ़ता है। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति को अपने लिये व समाज के लिये क्या-क्या व कितना-कितना करना है? इसके दिशा निर्देश हमारे ग्रंथों में स्पष्ट है। अंततोगत्वा सन्यास आश्रम जीवन का अंतिम पुरूषार्थ मोक्ष के लिये समर्पित होता है।

        पाश्चात्य देशों में इस प्रकार की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। वहाँ के लोगों की जीवन पद्धति की कोई गाइडलाईन उनके किसी धर्म ग्रंथ में वर्णित नहीं है। अतः वे अपना बुढ़ापा ओल्डऐज होम में व्यतीत करते है। किसी संतान का बुढ़ापे में माँ-बाप की सेवा करना वहाँ की सामाजिक व्यवस्था में नहीं आता। कई बार वहाँ के अखबारों में खबरें छपती है कि लोग बुढ़ापे में भी समय बिताने के लिये युवती लड़की से शादी रचाते है। इस प्रकार की खबरें जब पढ़कर गाँव में सुनाई जाती है तो गाँव वाले कहते है इस उम्र में क्यों धूड़ खाई? वहाँ पर वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम होता ही नहीं है। मरते दम तक पैसा कमाने के लिये घाणी के बैल  की तरह खपता रहता है। भोगवादी व्यवस्था उनके जीवन में हावी रहती है। भारत में भी जहाँ-जहाँ परिवार टूट रहे हैं, पारिवारिक सदस्यों के बीच दूरियाँ बढ़ रही है। एक दूसरे को सहयोग करने की भावनाएँ समाप्त हो रही है। ऐसे परिवारों में पश्चिमी देशों से मिलते जुलते हालात हो रहे है। यहाँ भी शहरों में वृद्धावस्था आश्रम कई संस्थाएँ चला रही है। सामाजिक व्यवस्था टूटने से एकल परिवार संस्कृति बढ़ रही है और ओल्डऐज होम भी बढ़ रहे है। एकल परिवार की वजह से आज समाज में विभिन्न प्रकार की समस्याओं ने घर कर लिया है यह स्थिति शहरों तक सीमित है।

        भारत गाँवों में बसता है। हालांकि गाँवों में भी कई जगह यह बुराई देखने को मिलना शुरू हो गई है लेकिन फिर भी अभी भी गाँवों में संयुक्त परिवार प्रथा बची है। जिन परिवारों का मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन है उनके लिये मजूबरी में ही सही मगर संयुक्त परिवार प्रथा जरूरी है। जहाँ संयुक्त परिवार प्रथा होगी वहाँ देश कभी बूढ़ा नहीं होगा। शहरों की अपेक्षा गाँवों में नये बच्चों के पैदा होने का प्रतिशत ज्यादा ही है जीवन पर्यन्त व्यक्ति अपने कार्यो में संलग्न रहता है। साठ वर्ष से ज्यादा की आयु के लोग भी खेती और पशुपालन के काम सफलतापूर्वक और रूचि से करते दिखाई देते है। शरीर में अत्यधिक शिथिलता आ जाने के बाद भी छोटे बच्चों की देखभाल करना बहुत अच्छा लगता है। बुढ़ापे में शरीर को गतिशील बनाये रखने के लिये ये हमेशा कुछ न कुछ करते ही रहते है। परिवार में बुर्जुग लोगों का अत्यधिक सम्मान होता है। मोहल्लें के बुर्जुग लोग इकट्ठे होकर हथाई करते रहते है। इस प्रकार उनका जीवन हंसी खुशी से व्यतीत होता है। छोटी मोटी बीमारी से वे डरते भी नहीं है। परिवार और समाज की विभिन्न समस्याओं का सटीक इलाज बुर्जुगों के पास ही होता है। अतः पश्चिमी देशों की तरह भारत में बुढ़ापा अभिशाप न होकर वरदान ही होता है। यहाँ बुजुर्ग लोग आनन्द से जीने का दर्शन अच्छी तरह समझते है।

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