रेगिस्तान में सुपरफूड

             


 पश्चिमी राजस्थान में ज्यादातर खेती वर्षा आधारित ही होती है। वर्षा आधारित फसलें ही यहाँ के किसानों का भरणपोषण का साधन होता है। खरीफ की फसलों में गायों का गोबर का खाद खेतों में डाला जाता है। उस जमाने में और आज भी खरीफ की फसलों में किसी प्रकार का रासायनिक खाद या कीटनाशक डालने की आवश्यकता नहीं होती है। सारी मुख्य फसलें और अंतर फसलें शत् प्रतिशत ऑर्गेनिक ही होती है। जो खाद्यान्न, दलहन, तिलहन और सब्जियाँ व फल आदि इन खेतों में पैदा होते है उनके अन्दर पौष्टिकता भरपूर होती है। इनका स्वाद और सुगंध मन को भाने वाली होती है। अतः सब गुणों के कारण इन खेतों में जो भी प्राकृतिक रूप से होता है वह सब सुपरफूड की श्रेणी में आता है। यहाँ के किसानों का भोजन अति पोषक होता था। अतः वे अधिक बीमार नहीं होते थे। उनका शरीर बलिष्ठ रहता था।

                     खाद्यान्न में मुख्य फसल बाजरी होती है। बाजरी का सोगरा (रोटी) मिट्टी के तवे पर बनाकर खाने का रिवाज है। इसके साथ बाजरी का दलिया, बाजरी की राबड़ी जो छाछ में बनाई जाती थी और बाजरी की घाट खाई जाती है। दूसरा खाद्यान्न ज्वार होती है। ज्वार का भी सोगरा बनाकर खाया जाता था। ज्वार के आटे को छाछ में पकाकर राबोड़ी बनाई जाती है। जो किसी भी समय सब्जी बनाने के काम आती है। राबोड़ी को वर्ष पर्यन्त रख सकते है। भादवा में कई बार अच्छी बरसात होने पर असिंचिंत रबी की फसल में जौ, चना, असालिया, धनिया, मेथी और सरसों आदि भी ऑर्गेनिक पैदा होती है। गर्मीयों में जौ और चने को मिलाकर आटा बनाया जाता है। इस आटे की रोटी को बेजड़ की रोटी कहते है। यह खाई जाती है।

                    दलहनी फसलों में मुख्यतया मूंग, मोठ और चवला (बीन्स) खरीफ की फसल में पैदा होता है। मूंग की दाल वर्ष पर्यन्त बनाकर खाई जाती है। मूंग की दाल की मोगर भी बनाई जाती है। मूंग की दाल में चने की दाल मिलाकर बनाने से अधिक स्वादिष्ट लगती है। मोगर को पीसकर सब्जी बनाने के लिये बड़ियाँ (मंगोड़ी) बनाकर हर घर में रखी जाती है। जो सालभर तक रहती है। इसी मोगर को पीसकर पापड़ बनाये जाते है। पापड़ में सब्जी खार डाला जाता है। जो एक पौधे का क्षार होता है। पापड़ भोजन के पश्चात खाने की परिपाटी है। इसके साथ ही पापड़ की इस्टेट सब्जी भी बनती है।

                     तिलहन के रूप में तिल की खेती खरीफ में और सरसों की खेती रबी में की जाती है। सर्दियों के दिनों में गर्म-गर्म बाजरी का सोगरा गुड़ और तिल का तेल मिलाकर चूरमा बनाकर खाया जाता है। जो अत्यंत पौष्टिक होता है। परिवार के सभी सदस्य बाजरे का ऐसा चूरमा बनाकर जरूर खाते है। किसी वर्ष यदि सरसों की खेती नहीं हो पाती है तो वर्ष पर्यन्त तिल का तेल ही खाया जाता है। हर गाँव में तिलहन से तेल निकालने की एक दो घाणी अवश्य होती है। गाँव वाले तिल और सरसों लेकर जाते है और तेल निकलवाकर तेल और खल ले आते है। तेली को उसकी मजदूरी दे दी जाती है। खल गायों और बैलों को खिलाई जाती है। इस प्रकार तेल बिना रिफाइंड का 100 प्रतिशत ऑर्गेनिक की खाया जाता है।

इस क्षेत्र में सिंचाई के साधन नहीं के बराबर है। फिर भी यहाँ पर खरीफ की फसलों में अंतर फसल के रूप में सब्जियाँ पैदा होती है। इनमें मुख्यतः ग्वारफली, काचरा, मतीरा, टिण्डसी और चवला की फलियाँ खूब पैदा होती है। दीपावली तक तो ये सभी ताजी सब्जियाँ सुबह-शाम बनती ही रहती है।  इनमें से ग्वारफली को हरा भी सुखाया जाता है और हल्का उबालकर भी सुखाया जाता है। टिण्डसी को भी हल्का उबालकर सुखा देते है। ये सब्जियाँ जब ताजी सब्जियाँ नहीं होती है तब इनको गर्म पानी में भिगोकर सब्जियाँ बनाने की परंपरा है। काचरे को छीलकर धागे में उसकी माला बनाकर धूप में सूखाकर रखा जाता है। ये काचरा वर्षपर्यन्त सब्जी और चटनी बनाने में काम आता है। जिस समय ताजी सब्जियाँ नहीं होती है। उस समय इन प्रसंस्करण की हुई सब्जियों को बडे़ चाव के साथ खाया जाता है। इनमें स्वाद और पौष्टिकता बनी रहती है।

                    रेगिस्तान के खेतों में पेड़ों की भी संख्या कम नहीं होती है। खेजड़ी पर लगने वाली सांगरी ताजी भी सब्जी बनाकर खाई जाती है तथा इसको हल्का उबालकर प्रिर्जव करके वर्षभर के लिये रखा जाता है। कुमठ के पेड़ पर कुमठ खूब लगता है। इसके बीजों को हल्का उबालकर सूखाकर प्रिर्जव करके रख देते है। यह भी सब्जी बनाने के काम आता है। पश्चिमी राजस्थान में केर के पौधे बहुतायत से मिलते है। इनके फलों को तोड़कर ताजे केर की सब्जी भी बनती है, इसका आचार भी बनता है और उबालकर सुखाते भी है। देशी बबूल पर लगने वाली फलियों को सेलारियाँ बोलते है। इनको भी कच्ची अवस्था में तोड़कर हल्का उबालकर सूखाकर रख देते है। जब भी सब्जियों की कमी होती है उस समय इन सूखी सब्जियों को बनाकर खाया जाता है। केर, कुमठिया, सांगरी, गुंदा व अमचूर मिलाकर पंचकुटा की सब्जी खूब पसंद की जाती है। आजकल हर शहर में बड़ी दुकानों पर पंचकुटा की सब्जी मिलती है। जिनकी कीमत 1200 से 1800 रूपये प्रति किलो तक होती है। इस प्रकार पेड़ों पर लगने वाली सभी सब्जियाँ प्राकृतिक एवं पौष्टिक होती है। 

                     रबी की फसल में चना मुख्य फसल है। चने की दाल बनाई जाती है जो रोज खाने के काम आती है। कई सामूहिक भोजन में केवल चनादाल भी स्वादिष्ट बनती है। चना की दाल का बेसन बनाकर कई व्यंजन बनाये जाते है। राजस्थान में कढ़ी व सोगरा बड़े चाव के साथ खाया जाता है। घर में दूध, दही बहुत होता है। अतः शुद्ध छाछ में बेसन की कढ़ी ज्यादातर बनाई जाती है। कढ़ी में भी कई प्रकार  की वैरायटी होती है। जैसेः- बेसन गट्टा कढ़ी, बेसन की पकौड़ी वाली कढ़ी, मोठ मसाला बनाकर उसकी कढ़ी, चना मसाला बनाकर उसकी कढ़ी, कुमठिया मसाला बनाकर उसकी कढ़ी, पापड़ कढ़ी आदि। शुद्ध छाछ में बनी इन सभी प्रकार की कढ़ी में पौषक तत्त्व और स्वाद बहुत होता है। भरपेट भोजन हो जाने पर भी खाने की इच्छा पूरी नहीं होती। चना मसाला और मोठ मसाला खाने का रिवाज यहाँ बहुत है। इनसे शरीर में प्रोटीन की कमी पूरी होती है। बेसन से बना हुआ गोविन्द गट्टा यहाँ पर मेहमानों के लिये विशेष व्यंजन बनाया जाता है। मिठाई में बेसन की चक्की व लड्डू बनाये जाते है। सर्दियों में सबका मूड होने पर समय-समय पर मूंग की दाल के पकौडे़ तिल के तेल में बनाये जाते है। परिवार के सभी सदस्य मिलकर कितने सेर पकौडे़ खा जाते है पता भी नहीं चलता।

                     सुपरफूड में मुख्य स्थान गाय के घी का है। जो यहाँ पर हर घर में उपलब्ध रहता है। दाल और कढ़ी में कभी भी तेल का छौंक नहीं लगता है। केवल गाय के घी का ही छौंक लगता है। आजकल तो घी का छौंक भूल ही गए। घी, गुड़ का चूरमा बनाकर सभी सदस्य खाते थे। सर्दियों के दिनों में देशी घी के लड्डू बनाकर मटकियाँ भरके रख देते थे। सुबह-सुबह हर सदस्य को सर्दी भर यह लड्डू खाने होते थे। घर आये हर मेहमान को गाय की घी का चूरमा गुड़ या बूरा शक्कर मिला कर परोसा जाता है। चूरमा बन कर तैयार हो जाने के बाद भी 100 से 200 ग्राम घी और परोसा जाता है जिसे मनुहार कहते है। इस प्रकार रेगिस्तान के गाँवों का खानपान है। जो दुनिया के किसी भी सुपरफूड से कम नहीं होता है। आजकल इसमें कमी आ गई है। यह चीजें अब नई पीढ़ी के लोगों को खाने को नहीं मिल रही है। अपनी भोजन सामग्री में पश्चिमी देशों को देखकर जो बदलाव आ रहा है उससे हमारी पीढ़ी शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर होती जा रही है। आवश्यकता है इस पुराने सिस्टम को पुर्नजीवित करने की।

Comments

  1. आपका मार्गदर्शन हमेशा हमारी संस्कृति की याद दिलाता है, नई पीढ़ी को ऊर्जा देता है

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  2. Very useful information about different useful crops

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