सांझा खेती

              


   अमेरिका जैसे धनाढ्य लोग आजकल अपने खाने – पीने की वस्तुओं के बढ़ते भाव से अत्यधिक परेशान है। उनकी वास्तविक आय का बहुत बड़ा हिस्सा खाद्यान, फल, सब्जियाँ, मसाले आदि पर खर्च हो रहा है फिर भी उन्हे यह सामान गुणवत्ता पूर्ण नहीं मिल पा रहा है। उनकी ग्रोसरी का बिल लगातार बढ़ने के कारण उनका बजट गड़बड़ा गया है।

        अमेरिका के कई राज्यों में अपने खाने – पीने की वस्तुओं की लागत मूल्य को कम करने, समय पर इच्छा अनुसार पोष्टिक व ओर्गनीक सामाग्री मिलती रहे तथा कुछ शरीरिक श्रम भी होता रहे इस उदेश्य से कम्यूनिटी फ़ार्मिंग अर्थात सांझा खेती की प्रथा शुरू की है। इस प्रथा के अंदर 20 या 20 से अधिक लोग अपनी अपनी जमीनों पर सामूहिक रूप से खेती करते है।  स्वयं की जमीने कम होने पर अन्य किसानों की जमीन भी लीज पर लेते है। इस ग्रुप मे सभी सदस्य अपना अपना सहयोग जैसे परिश्रम, बीज, खेत की तैयारी व बुवाई, हार्वेस्टिंग आदि सभी कृषि कार्य का खर्च आपस मे बाँट लेते है। हर सदस्य को उसके परिवार की आवश्यकता के अनुसार सामान दे दिया जाता है फिर भी खपत के अनुपात मे उत्पादन बहुत ज्यादा होता है, जिसे वे बाजार मे बेच कर आय का बंटवारा कर लेते है। सांझा खेती मे फसलों का रोपण इस प्रकार से किया जाता है कि उन्हे प्रतिदिन की आवश्यकता के अनुसार ओर्गनीक खाद्यान, फल, सब्जिया, हर्ब्स, स्पाइसेस, अरोमेटिक हेर्ब्स, दलहन, तिलहन, मेवे आदि ग्रोसरी का सारा सामान कम कीमत मे उपलब्ध हो सके।

        वाशिंगटन की एलेक्सीय ने 8 एकड़ मे कम्यूनिटी फ़ार्मिंग को बिज़नस के तौर पर चुना, उसका कहना है की उनसे जुडने वाले हर मेम्बर से 20,000 रुपये मैम्बरशिप फीस ली। पिछले 6 महीनों से किसी भी मेम्बर ने बाजार से ग्रोसरी नहीं खरीदी। सब्जियाँ व जरूरत के फूड प्रोडक्टस कम्यूनिटी फार्म से हे उपलब्ध हो रहे है। इस प्रकार उनके घर के खर्च मे  40% तक की मासिक बचत की। इसके साथ ही पैक्ड फूड बरगर आदि खाने की अवश्यता कम हो गयी साथ ही प्रतिदिन खेत मे काम करने से सभी सदस्यों का स्वास्थ्य ठीक रहने से मेडिकल के बिल मे भी कमी आई है।

            पश्चिमी राजस्थान के मारवाड मे सांझा खेती का चलन लंबे समय से था जो आजकल दिखाई नहीं पड़ता है। यहा पर किसान अपनी अपनी खेती का काम कुछ ग्रुप बना कर करते  थे। बरसात से पूर्व खेत की सफाई जिसको स्थानीय भाषा मे सूड़ करना कहते है, ग्रुप के सारे सदस्य एक साथ मिल कर काम करते थे। बरसात आने पर सारे किसान अपने अपने हल और बैल लेकर बुवाई मे लग जाते थे। फसल की निराई व गुड़ाई मे ग्रुप की सारी महिलाए एक साथ काम करती थी। हार्वेस्टिंग के समय सभी पुरुष व महिलाए एक साथ हार्वेस्टिंग करते थे। उसके बाद थ्रेसिंग का काम भी बैलो से ही किया जाता था, इस कारण उनकी खेती की लागत आज की तुलना मे 50% तक कम होती थी तथा पोस्ट हार्वेस्टिंग होने वाले नुकसान से भी बचत होती थी। अपने अपने खेत के उत्पादन को आपस मे बाँट लिया जाता था। खेत की तैयारी, जुताई, निराई, गुड़ाई, कटाई आदि कोई भी खर्च नगद के रूप मे काही नहीं होता था। सारा लागत मूल्य शारीरिक श्रम से ही पूरा होता था। किसान को अपनी आवश्यकता से कई गुना अधिक खाद्यान, दलहन, तिलहन आदि रसोई के समस्त सामान इतने अधिक मिलते थे कि 2-3 साल तक का सारा समान  भंडारण करकर रखा जाता था। इन सबको भंडारण करने के लिए बड़ी बड़ी कोठिया मिट्टी व लकड़ियों से बनाई जाती थी। इस प्रकार खाने पीने कि सभी चीजों मे वे आत्मनिर्भर थे। धीरे धीरे यह प्रथा मशीनीकरण, मुद्रा चलन, कृषि जोत कम होना, सहकारिता की कमी व आपसी सामंजस्य के समाप्त होने के साथ साथ यह प्रथा समाप्त हो गयी है। अत: खेती हानि का सौदा हो गया है। आवश्यकता है खेती मे पुन: पुरातन व्यवस्था स्थापित करने की।   

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