जरा पीछे मुड़कर देखें

 मेरे पड़ोस में मेरा मित्र जोगाराम अपनी 95 वर्षीय दादीजी (गवरी बाई) के साथ रहता था। हम सभी बच्चे भी उनको दादीजी ही कहते थे। सभी बच्चे उनके इर्द-गिर्द खेला करते थे। दादीजी बहुत सुन्दर थी। अभी भी उनके बाल काफी लम्बे-लम्बे लटक रहे थे और चेहरे पर झुर्रियाँ नहीं थी। कमर और घुटने एकदम सही थे। उनकी हाईट 6 फुट से कुछ अधिक ही थी। सभी बच्चों को बहुत प्यार करती थी और साथ में ध्यान भी रखती थी कि कोई शैतानी तो नहीं कर रहा हैं। शैतानी करने पर तुरंत डांट भी खानी पड़ती थी।

      सौन्दर्य स्वस्थ शरीर के बारे में दादीजी बचपन से लेकर आज दिन तक के उनके भोजन, रहन-सहन और रीति रिवाजों के बारे में रोचक तरीके से बताती रहती थी। जो बहुत अच्छा लगता था। सवेरे उठते ही छाछ और बाजरी की राबड़ी, बाजरे की खींच या दलिया (घी डालकर) खाते थे। दोपहर में बाजरे की रोटी (सोगरा) उसके साथ ग्वारफली, पचकुटा, खेत में पैदा होने वाली कोई सब्जी, कढ़ी या दाल के साथ खाते थे। भोजन के साथ रोटी और घी गुड़ मिलाकर चूरमा जरूर खाते थे। तीन-चार बजे ठंडी रोटी कभी आचार के साथ कभी दही के साथ खाते थे। रात्रि भोजन में बाजरी का सोगरा दूध में चूरकर खाने का रिवाज था। केवल स्थानीय और सीजनल सब्जियाँ ही खाई जाती थी। घर का दूध, दही, मक्खन, घी, छाछ का अधिक से अधिक उपयोग भोजन में करते थे। खाने-पीने के अनाज, दालें अपने खेतों में पैदा करते थे। उस समय तक हाईब्रीड बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि केमिकल्स हमारे यहाँ नहीं थे। मूंग, मोठ, चवला (कटोल) के रूप में पैदा होता था जिसको अधिक मात्रा में खाते थे। तेल के लिये तिल पैदा करते थे। जिसकी घाणी आवश्यकतानुसार कराते रहते थे।

 सवेरे जल्दी उठना, रात को जल्दी सोना और दिनभर कड़ी मेहनत करना प्रतिदिन की दिनचर्या थी। बच्चे अपनी आयुवर्ग के अनुसार तरह-तरह के खेल खेला करते थे। जिनसे उनका शारीरिक व्यायाम होता था। नीम की डंडी से या राख और नमक को मिलाकर दातुन करना ही परंपरा थी। खाना बनाने के बर्तन, पानी पीने के बर्तन, तवा, परात से लेकर कटोरियाँ तक मिट्टी से बनी हुई होती थी। घरों को इस प्रकार से बनाया जाता था कि सूर्य का प्रकाश ताजी हवा का आती रहे। कच्ची मिट्टी के घरों को गोबर से महीने में दो या तीन बार लीपा जाता था। सारे ही त्यौंहार अपने पारंपरिक तरीको से मनाये जाते थे। पकवान हर त्यौंहार में बनाये जाते थे। रसोई में खाना बैठ कर ही बनाते थे। डबल चूल्हे ऐसे बनते थे जिसमें लकड़ी कण्डे जलाये जाते थे। मसाले नमक घर में ही कूटे-पीसे जाते। सभी दाले घर पर ही बनायी जाती थी। रोज सवेरे उठकर पहला काम हाथ की चक्की द्वारा अनाज पीसने का होता था। आटा एक सप्ताह से ज्यादा पुराना नहीं रखते थे। खाने-पीने का सारा सामान जैसेः- अनाज, दलहन, सूखी सब्जियाँ आदि सामग्री का इनकी सीजन के अनुसार वर्षभर का संग्रह करके रखते थे। समय-समय पर उसको संभालना जरूरी होता था। ताकि उसमें घुण नहीं लग जाये। किसी भी समय में तुरंत सब्जी बन जाये ऐसी चीजें सालभर के लिए महिलायें घर पर ही बनाकर रखती थी। जैसेः- बड़ियाँ, राबोड़ी, खींचिया, पापड़, सेवईयाँ आदि। हर मौसम में परिवार के सदस्यों के खाने के लिये पौष्टिक लड्डू बनाने का रिवाज था। जो अत्यंत ही पौष्टिक तो होते ही थे साथ ही शरीर में रोगप्रतिरोध क्षमता को बढ़ाते थे और शरीर के सारे अंगों को स्वस्थ रखते थे। अधिकतर पोषक वस्तुएं किराणे की दुकान से लाते थे। जैसेः- बादाम, पोस्तादाना, किसमिस, चिरौंजी, खजूर, सिंघाड़ा, फूलमखाना, नारियल, सोंठ, मेथी, गोंद, गुड़, उड़द आदि। विशेषकर शीतऋतु में इनके लड्डू गाय के घी में बनाये जाते थे। सवेरे उठते ही 1-2 लड्डू परिवार के हर सदस्य को खाना जरूरी होता था।

      अब आप समझ गये होंगे कि दादी के जमाने मे ंना हाईब्रीड फसलें थी, ना रासायनिक खाद थे, पेस्टीसाईड था, खाने के लिए कोई फास्टफूड, कोल्डड्रींक नहीं था। पैक्ड भोजन नहीं मिलता था। खाने के लिए होटलें नहीं थी। दो चार दिन के सफर में भी खाने के लिए ऐसे-ऐसे पकवान बनाकर साथ ले जाते थे जिनको लम्बे समय तक भरपेट खाया जा सके। घरों में फ्रीज, टी.वी., मोबाईल, बिजली, गैस का चूल्हा आदि नहीं हुआ करते थे। यही राज है कि उस जमाने की पीढ़ी दीर्घायु, स्वस्थ, सुडौल, मेहनती हुआ करती थी।

      यह जीवनचक्र सीधा सादा हैं। थोड़ी सी जागरूकता और संतुलित मनःअवस्था रखी जाये तो धीरे-धीरे आधुनिक नुकसान वाली चीजों से बचकर पुरानी व्यवस्था पर अपने परिवार को ला सकते हैं। आवश्यकता हैं पुरानी चीजों के फायदे और नई चीजो से आई बुराईयों का ज्ञान। अच्छाई को स्वीकार करने का ढृढ़ निश्चय करना होगा। पुरानी भोजन पद्धति स्वादिष्ट, पोषक, गुणकारी और स्वास्थ्यर्वधक तो हैं ही साथ ही सस्ती सुलभ भी हैं। इसके बारे में परिवार की नई पीढ़ी को विशेषकर बच्चों को समय-समय पर बातों-बातों में बताते रहना चाहिए। बुर्जुगों को पूछ-पूछ कर उनके समय के डाईट चार्ट भोजन बनाने की विधियों का डाक्यूमेंटेशन हर परिवार में होना चाहिए।

अब आप समझ गये होंगे कि दादी के जमाने मे ंना हाईब्रीड फसलें थी, ना रासायनिक खाद थे, पेस्टीसाईड था, खाने के लिए कोई फास्टफूड, कोल्डड्रींक नहीं था। पैक्ड भोजन नहीं मिलता था। खाने के लिए होटलें नहीं थी। दो चार दिन के सफर में भी खाने के लिए ऐसे-ऐसे पकवान बनाकर साथ ले जाते थे जिनको लम्बे समय तक भरपेट खाया जा सके। घरों में फ्रीज, टी.वी., मोबाईल, बिजली, गैस का चूल्हा आदि नहीं हुआ करते थे। यही राज है कि उस जमाने की पीढ़ी दीर्घायु, स्वस्थ, सुडौल, मेहनती हुआ करती थी।

               यह जीवनचक्र सीधा सादा हैं। थोड़ी सी जागरूकता और संतुलित मनःअवस्था रखी जाये तो धीरे-धीरे आधुनिक नुकसान वाली चीजों से बचकर पुरानी व्यवस्था पर अपने परिवार को ला सकते हैं। आवश्यकता हैं पुरानी चीजों के फायदे और नई चीजो से आई बुराईयों का ज्ञान। अच्छाई को स्वीकार करने का ढृढ़ निश्चय करना होगा। पुरानी भोजन पद्धति स्वादिष्ट, पोषक, गुणकारी और स्वास्थ्यर्वधक तो हैं ही साथ ही सस्ती सुलभ भी हैं। इसके बारे में परिवार की नई पीढ़ी को विशेषकर बच्चों को समय-समय पर बातों-बातों में बताते रहना चाहिए। बुर्जुगों को पूछ-पूछ कर उनके समय के डाईट चार्ट भोजन बनाने की विधियों का डाक्यूमेंटेशन हर परिवार में होना चाहिए।

Comments

  1. यह जिंदगी की साचाई है। आज के परिप्रेष्य में यह सब संभव कराना मुश्किल है।

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  2. Traditional way of living. Useful information sir.
    Thank you.

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  3. आइए, खाने पीने की पुरानी और प्राकृतिक आदतों पर लौटें।

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  4. Very appreciative sir

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  5. Sir your thoughts are great 👍👍👍

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  6. Best thought sir

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  7. Sir it's great thought 😄😄😄😄

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  8. "This blog post is incredibly informative and well-written. I appreciate how the author broke down complex concepts into easily understandable language. It's evident that a lot of research and effort went into creating this content. Great job!"👏👏👏👏👏👏👍👍👍👍👍👍👍👍👍

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  9. We lost our culture, traditions and healthy food habits with the effects of western education ,& lifestyle ! Now we must realize and return to old rural habits using organic seasonal vegetables !

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